श्री कृष्ण स्मृति भाग 108

 "भगवान श्री, रहस्य-विद्या के अतिरिक्त बौद्धिक स्तर पर भी आत्मा को समझने का और पुनर्जन्म का कोई प्रमाण है? यानी दार्शनिक रूप से भी क्या हम इसे सिद्ध कर सकते हैं, बिना साधना में गए, कि आत्मा है और पुनर्जन्म होता है?

भगवान श्री, जो आत्मा होश में मरती है, उनको भी पता रहता है पूर्व-जन्म का। इन प्रेतात्माओं को जो पता चलता है अपने पूर्वजन्म का, तो क्या ये सब होश में मरे हुए होते हैं?'


जो व्यक्ति मरता है, उसका सिर्फ शरीर ही मरता है, उसका चित्त नहीं मरता। उसका मन नहीं मरता, वह उसके साथ जाता है। और थोड़े समय तक, जैसे हम सुबह जब स्वप्न से जागते हैं तो थोड़े समय तक स्वप्न याद रहता है, दोपहर होते-होते तिरोहित हो जाता है। सांझ होते-होते कुछ याद नहीं रहती कि क्या स्वप्न था। जब लेकिन स्वप्न से हम एकदम उठते हैं तब स्वप्न का पिछला हिस्सा थोड़ा-सा हमें याद होता है, हालांकि स्वप्न हमने बेहोशी में देखा है। स्वप्न हमने होश में नहीं देखा। लेकिन जब नींद टूटने के करीब होती है तो थोड़ा-सा होश आने लगता है। और उस होश में जितना स्वप्न का अंकन, जितने भी संस्कार छूट जाते हैं, वे हमें जागने पर याद रहते हैं। लेकिन दोपहर होते-होते दोपहर की धूप खिलते-खिलते वे सब विदा हो जाते हैं, सांझ को हमें कोई स्वप्न याद नहीं रह जाता।

प्रेतात्मा, जैसे ही कोई व्यक्ति शरीर को छोड़ता है, थोड़े समय तक--और यह प्रत्येक व्यक्ति की याददाश्त का समय भिन्न-भिन्न होगा--उसे थोड़े समय तक अपने स्वजन, अपने प्रियजन याद रहते हैं। इन स्वजन और प्रियजनों को भुलाने के लिए बहुत उपाय किए गए हैं। आदमी मरा नहीं कि हम उसकी लाश को तत्काल मरघट ले जाना चाहते हैं। हम उसकी "आइडेंटिटी' को तत्काल नष्ट करना चाहते हैं। क्योंकि अब कोई अर्थ नहीं है कि वह हमें याद रखे। और यह शरीर जितनी देर रखा जा सके, उतनी देर तक वह हमें याद रख सकेगा, क्योंकि इसी शरीर के माध्यम से उसकी सारी स्मृतियां हमसे हैं। यह शरीर बीच का जोड़ है। इसको हम ले जाते हैं। एकदम से आदमी मरता है तो थोड़ी देर तक तो उसे पता ही नहीं चलता है कि मैं मर गया हूं। क्योंकि भीतर तो कुछ मरता नहीं। थोड़ी देर तक तो उसे ऐसा ही अनुभव होता है कि क्या कुछ गड़बड़ हो गई, शरीर अलग मालूम पड़ रहा है, मैं अलग हो गया हूं! हां, जो लोग ध्यान में गए हैं, उन्हें यह तकलीफ नहीं होती है, क्योंकि इस अनुभव से वह पहले गुजर गए होते हैं। मरने पर अधिकतम लोगों को बड़ी बिबूचन पैदा होती है। पहली बिबूचल यही पैदा होती है कि यह मामला क्या है! ये लोग रो क्यों रहे हैं, ये चिल्ला क्यों रहे हैं कि मैं मर गया, क्योंकि मैं तो हूं। सिर्फ इतना ही मालूम होता है कि शरीर अलग पड़ा है जो मेरा था, और मैं जरा अलग मालूम पड़ रहा हूं, और तो कुछ मर नहीं गया है।

इसी शरीर के माध्यम से हमारा सारा "एसोसिएशन' है स्मृतियों का, इसलिए हम तत्काल मरघट ले जाते हैं और शरीर को जला देते हैं या गड़ा देते हैं। उस शरीर के टूटते ही उस आदमी के स्मृतियों के जाल हमसे एकदम विच्छिन्न हो जाते हैं। और जैसे स्वप्न से उठा आदमी थोड़ी देर में स्वप्न भूल जाता है, ऐसा मृत्यु से उठा आदमी या जिसे हम जीवन कहते हैं उससे उठा हुआ आदमी थोड़ी देर में सब भूल जाता है। वह कितनी देर में भूल जाता है उसके हिसाब से हमने दिन तय किए हैं। जिनकी स्मृति बहुत कमजोर है वे तीन दिन में भूल जाते हैं। जिनकी स्मृति बहुत अच्छी है, वे तेरह दिन में भूल जाते हैं। यह बहुत सामान्य हिसाब से तय किए हुए दिन हैं कि तीन दिन में भूल जाएंगे कि तेरह दिन में भूल जाएंगे, लेकिन यह आमतौर से है। लेकिन प्रगाढ़ से प्रगाढ़ स्मृति का आदमी एक वर्ष में भूल जाता है। इसलिए एक वर्ष तक मृतक के कुछ संस्कार हम जारी रखते हैं। वह एक वर्ष तक हम उसके साथ थोड़ा-सा संबंध जारी रखते हैं, क्योंकि रह सकता है संबंध। लेकिन सामान्यतया ऐसा नहीं होता है। तीन दिन में सब टूट जाता है। कुछ का तो और भी जल्दी टूट जाता है। वह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर होगा। साल भर बहुत कम आत्माएं बचती भी हैं आत्मा रूप में। बहुत जल्दी शीघ्र नए जन्म ग्रहण कर लेती हैं।

होश में जो मरता है, वह तो कभी मरता ही नहीं, पहली बात। जो मरते वक्त पूरे होश में है, वह तो कभी मरता ही नहीं, क्योंकि वह जानता है कि सिर्फ शरीर छूटा। और जो इतने होश में है, उसका कोई न स्वजन है, न कोई प्रियजन है, न कोई पराया जन है। जो इतने होश में है, वह स्मृतियों के बोझ से लदता नहीं। जो इतने होश में है, उसकी तो बात ही नहीं है। और जो मृत्यु में होश से मरता है, वह अगले जन्म को होश से पा लेता है। जैसे मैंने कहा कि मृत्यु के बाद भी थोड़े दिन तक हमें स्मरण होता है जहां से हम आए, जन्म के बाद भी बच्चे को थोड़े दिन स्मरण होता है जहां से वह आया। यह प्रेतात्म-जीवन का जो अनुभव बीच में गुजरा, उसकी स्मृतियां उसके पास होती हैं। लेकिन वह धीरे-धीरे खो जाती हैं। और इसके पहले कि वाणी उसे उपलब्ध होती है, खो जाती हैं। कभी-कभी बहुत ही तीव्र स्मृति वाले बच्चों को वे स्मृतियां शेष रह जाती हैं, जो कि उसके बोलने के बाद भी जारी रहती हैं। वह "रेयर' घटना है। स्मृति की बहुत ही अनूठी संभावना के कारण ऐसा होता है।

एक सवाल इस संबंध में पूछा गया है कि क्या रहस्यात्मक अनुभूति के अतिरिक्त भी पुनर्जन्म का कोई दार्शनिक प्रमाण है?

दार्शनिक प्रमाण तो सिर्फ तार्किक होते हैं। तर्क के आधार पर होते हैं। और तर्क की एक खराबी है कि जितने वजन का तर्क पक्ष में दिया जा सकता है, ठीक उतने ही वजन का तर्क विपक्ष में दिया जा सकता है। तर्क जो हैं, उसको अगर ठीक से कहें तो जो जानते हैं वे तर्क को वेश्या कहते हैं, किसी के भी साथ खड़ा हो सकता है। उसका कोई अपना निजी मंतव्य तर्क का नहीं है।

तो जिन लोगों ने तर्क और दर्शन से सिद्ध करने की कोशिश की है कि पुनर्जन्म है, उनके विपरीत ठीक उतने ही वजन के तर्कों से सिद्ध किया जा सका है कि पुनर्जन्म नहीं है। तर्क जो है वह "सॉफिस्ट्री' है। "साफिस्ट्री' का मतलब कि तर्क जो है वह वकील की तरह है। उसका कोई अपना कोई हिसाब नहीं है। किसने उसको किया हुआ है अपनी तरफ, उसकी तरफ वह बोलता है। वह अपनी पूरी ताकत लगाता है। इसलिए तर्क से कभी कोई निष्कर्ष निष्पन्न नहीं होता। बहुत निष्कर्ष निष्पन्न होते हुए मालूम होते हैं, होता कभी नहीं। क्योंकि ठीक विपरीत तर्क से इतने दूर तक पक्ष में जाता है तो उतनी ही दूर तक विपक्ष में जा सकता है। इसलिए दर्शनशास्त्र कभी तय नहीं कर पाएगा कि पुनर्जन्म है या नहीं। बातें कर पाएगा। हजारों साल तक बातें कर पाएगा, लेकिन कुछ सिद्ध नहीं होगा।

तर्क के साथ एक और मजा है कि जिसे आप सिद्ध करते हैं, उसे आप पहले ही माने होते हैं। तर्क के साथ एक मजा है कि जिसे आप सिद्ध करते हैं, उसे आपने पहले ही माना होता है, तर्क तो आप पीछे उपयोग में करते हैं। "एज्यूम' किया होता है, वह आपका "प्री-सपोजीशन' होता है।

एक मित्र हैं, वे एक बड़े प्रोफेसर हैं और किसी विश्वविद्यालय में पुनर्जन्म पर खोज का कार्य करते हैं। कोई मुझसे उनको मिलाने लिवा आया। और उन्होंने मुझसे मिलते ही कहा कि मैं वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है। तो मैंने उनसे कहा कि यह तो फिर वैज्ञानिक न हो पाएगा, क्योंकि क्या सिद्ध करना चाहते हैं यह आपने पहले ही पक्का किया हुआ है। वैज्ञानिक का मतलब यह होता है कि आप ऐसा कहिए कि मैं जानना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है या नहीं। आप कहते हैं, मैं सिद्ध करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है। तो सिद्ध होना तो पहले ही है आपके मन में। पुनर्जन्म है, यह तो पक्का ही है। अब रह गया यह कि दलीलें इकट्ठी करनी हैं, तो दलीलें इकट्ठी की जा सकती हैं। एक आदमी सिद्ध करना चाहता है कि पुनर्जन्म नहीं है। यह तो पक्का ही है। अब रह गईं दलीलें, दलीलें इकट्ठी की जा सकती हैं। और यह जगत इतना अदभुत है और इतना जटिल है कि यहां सब तरह के पक्षों के लिए दलीलें उपलब्ध हो जाती हैं। इसमें कोई कठिनाई नहीं है।

दर्शन कभी सिद्ध नहीं कर पाएगा कि पुनर्जन्म है या नहीं है। तो आपके सवाल को थोड़ा और हटाकर कहें। ऐसा पूछें कि क्या विज्ञान कुछ कह सकता है कि पुनर्जन्म है या नहीं?

दर्शन तो कभी नहीं कह पाएगा। वह कह रहा है पांच हजार साल से, उससे कुछ हल नहीं होता। जो मानते हैं, है, वे माने चले जाते हैं। जो मानते हैं, नहीं है, वे नहीं मानते चले जाते हैं। और वह वाला कभी नहीं है वाले को "कनविंस' नहीं कर पाता। नहीं है वाला कभी है वाले को "कनविंस' नहीं कर पाता। यह बड़े मजे की बात है कि जो "कनविंस' पहले से ही नहीं है वह कभी "कनविंस' होता ही नहीं। तर्क के साथ तर्क की यह नपुंसकता है, तर्क की यह "इमपोटेंस' है कि आप सिर्फ उसी को "कनविंस' कर सकते हैं जो "कनविंस' था ही। अब उसका कोई मतलब ही नहीं है। एक हिंदू को आप "कनविंस' कर सकते हैं कि पुनर्जन्म है, क्योंकि वह "कनविंस' है। एक मुसलमान को "कनविंस' करने जाइए तब पता चलता है। एक ईसाई को आप "कनविंस' कर सकते हैं कि पुनर्जन्म नहीं है, एक हिंदू को "कनविंस' करने जरा जाइए तो पता चलता है। जो पहले से ही राजी है किसी सिद्धांत के लिए, तर्क बस उसी के लिए खेल कर पाता है और कुछ नहीं कर पाता है। नहीं, सवाल को कुछ और तरह से पूछिए कि क्या वैज्ञानिक ढंग से कुछ कहा जा सकता है कि पुनर्जन्म है या नहीं?

हां, विज्ञान कोई पक्ष लेकर नहीं चलता। दर्शन पक्ष लेकर चलता रहता है, तर्क पक्ष लेकर चलता रहता है। असल में वैज्ञानिक चित्त का मतलब ही यह है कि जो निष्पक्ष है और जिसके लिए दोनों "आल्टरनेटिव' खुले हैं, जिसने कभी "क्लोज नहीं किया। जो कहता है कि यह भी हो सकता है, वह भी हो सकता है, हम खोजते चलते हैं। तो विज्ञान जब से खोज करना शुरू किया है--ज्यादा देर नहीं हुई, अभी थोड़े ही दिन हुए कोई पचास साल, जब यूरोप और अमरीका में "साइकिक सोसाइटीज' निर्मित हुई और उन्होंने थोड़ा-सा काम करना शुरू किया। अभी कोई पचास साल ही हुए जबकि कुछ थोड़े-से बुद्धिमान लोग, जिनके पास वैज्ञानिक की बुद्धि है--रहस्यवादी का नहीं सवाल--रहस्यवादी तो बहुत दिन से कहता है कि है और रहस्यवादी लेकिन प्रमाण नहीं दे पाता, क्योंकि वह कहता है मैं जानता हूं; तुम भी जान सकते हो, लेकिन मैं तुम्हें नहीं जना सकता। तो रहस्यवादी कहता है कि मेरे सिर के दर्द जैसा है, मुझे पता है कि है। तुम्हारे सिर में दर्द होगा, तुम्हें पता चल जाएगा। लेकिन मेरे सिरदर्द का पता तुम्हें नहीं चल सकता। और मैं कितनी ही चेहरे की आकृतियां बनाऊं, छाती पीटकर रोऊं, तुम फिर भी कह सकते हो कि पता नहीं बनकर कर रहे हो कि सच में दर्द हो रहा है? इसको हमेशा कहा जा सकता है।

पिछले पचास वर्षों में यूरोप में कुछ थोड़े-से लोग हुए--ओलिवर लाज, ब्रॉड, राइन--और इन सारे लोगों ने कुछ दिशाएं खोजनी शुरू कीं। ये सारे वैज्ञानिक चित्त के लोग हैं, जिनकी कोई मान्यता नहीं है। इन्होंने कुछ काम करना शुरू किया है, वह काम धीरे-धीरे प्रामाणिक होता जा रहा है। इन्होंने जो काम किया है, उसकी निष्पत्तियां गहरी हैं; और उसकी निष्पत्तियां पुनर्जन्म होता है, इस दिशा में प्रगाढ़ होती जाती हैं, नहीं होता है, इस दिशा में क्षीण होती जाती हैं। जैसे एक तो प्रेतात्माओं से संबंध स्थापित किए जा सके हैं बड़ी तरकीबों से, बड़ी व्यवस्थाओं से और सब तरह के वैज्ञानिक ढंगों से कोशिश की जा सकी है कि कोई धोखा नहीं। बहुत-से मामले धोखे के सिद्ध हुए हैं। लेकिन उनका कोई सवाल नहीं है। अगर एक मामला भी धोखे का सिद्ध नहीं होता, तो भी प्रामाणिक है।

तो प्रेतात्माओं से संबंध स्थापित किए गए हैं वैज्ञानिक ढंग से और उन संबंधों के आधार पर सूचना मिलनी शुरू हो गई कि आत्मा शरीरों को बदलती है। कुछ "साइकिक सोसाइटीज' के सदस्यों ने जिंदगी भर काम किया, मरते वक्त वह वायदा करके गए कि मरने के बाद हम पूरी कोशिश करेंगे सूचना देने की। उसमें दो-एक लोग सफल हो सके। और मरने के बाद उन्होंने कुछ निश्चित सूचनाएं दीं, जिसका वायदा उन्होंने मरने के पहले किया था। उनसे कुछ प्रमाण इकट्ठे हुए हैं।

और, मनुष्य के व्यक्तित्व में कुछ और नई दिशाओं का अनुभव, जैसे "टैलीपैथी' का, "क्लरवायंस' का, दूर-श्रवण का, दूर-दृष्टि का और दूर-संवाद का, इस पर काफी काम हुआ है। हजार मील दूर बैठे हुए आदमी को भी मैं यहां बैठकर संदेश भेज सकता हूं, बिना किसी बाह्य उपकरण का उपयोग किए। तब इसका मतलब यह होता है कि शरीर ही नहीं, अशरीरी ढंग से भी संवाद संभव है।

ओशो रजनीश



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्री कृष्ण स्मृति भाग 134

श्री कृष्ण स्मृति भाग 114

श्री कृष्ण स्मृति भाग 122