श्री कृष्ण स्मृति भाग 110
"भगवान श्री, ऐसा प्रयोग हुआ है कि "ग्लॉस कास्केट' में मरते हुए आदमी को सुलाया गया। इस पर आप कुछ कहने जैसा मानते हैं?'
ऐसा प्रयोग बहुत जगह करने की कोशिश की गई, लेकिन परिणामकारी नहीं हुआ। ऐसा खयाल है--स्वाभाविक है, क्योंकि विज्ञान जब सोचता है तो पदार्थ की भाषा में सोचता है--अगर एक आदमी मरता है और शरीर के अतिरिक्त कुछ और है और वह निकल जाता है, तो "वेट' कम हो जाना चाहिए। लेकिन यह हो सकता है कि जो निकल जाता है वह "वेटलेस' हो। उसका "वेट' होना ही चाहिए! या वह इतने कम "वेट' का हो कि हमारे पास कोई मानदंड न हो। जैसे कि सूरज की किरणें हैं, इसमें कोई "वेट' है? है "वेट'। सूरज की किरणें हैं ये। इनको तराजू पर तौलिए। एक तराजू पर अंधेरा रखिए, एक पलड़े पर रोशनी रखिए। उसको थोड़ा नीचे जाना चाहिए, अगर सूरज की किरणें हैं। वह नहीं जाता। सूरज की किरणें नहीं होनी चाहिए, क्योंकि "वेट' नहीं है। लेकिन उनमें "वेट' है। अगर एक वर्गमील की सब सूरज किरणें इकट्ठी की जाएं, तो एक तोले का "वेट' देती हैं। लेकिन वह बड़ा मुश्किल मामला है! अब कितनी आत्मा में कितना "वेट' होगा, अभी देर है।
तो वह प्रयोग किया गया, प्रयोग कई जगह किया गया, क्योंकि स्वाभाविक हमारा खयाल है कि आदमी मरता है, तो मरते आदमी को कांच के "कास्केट' में बंद कर दिया सब तरफ से, कोई रंध्र, द्वार नहीं रहने दिया, वह मर गया! जितना वजन जिंदा में था उससे कुछ तो कम हो ही जाना चाहिए, अगर कुछ उसमें से निकल गया, एक। दूसरा, जो निकला है, उसके निकलने के लिए भी कांच टूट जाना चाहिए, क्योंकि कोई रंध्र, द्वार नहीं है। मगर दोनों संभव नहीं हुए। न तो कांच टूटा, क्योंकि सभी चीजों के निकलने के लिए कांच बाधा नहीं है। सूरज निकल जाता है, किरणें निकल जाती हैं। हड्डी और लोहा भी बाधा नहीं है, "एक्स-रे' की किरण निकल जाती है। तो आदमी को क्यों झंझट डालते हो कि उसको निकलने को कोई चीज तोड़नी पड़े। अब "एक्स-रे' की किरण आपकी हड्डी और छाती के भीतर चली जाती है, हड्डी को पार करके चित्र ले आती है और कहीं कुछ टूटता नहीं, कहीं कोई छेद नहीं हो जाता। तो जब "एक्स-रे' की बहुत स्थूल किरण भी कांच को बिना तोड़े, हड्डी को बिना तोड़े, लोहे की सींखचों को बिना तोड़े, लोहे की दीवाल को पार कर लेती है, तो आत्मा को ही कौन-सी कठिनाई हो सकती है। "लाजिकली' कोई कठिनाई नहीं मालूम पड़ती। और जगत में बहुत कुछ "वेटलेस' है। असल बात यह है कि जिसको हम "वेट' कहते हैं, वह बहुत गहरे में हम समझें तो "वेट' नहीं है, सिर्फ "ग्रेवीटेशन' है। मगर इसको जरा गणित की तरह समझना पड़ेगा।
आपका वजन है यहां समझ लीजिए कि चालीस किलो, तो चांद पर आपका वजन चालीस किलो नहीं होगा। आप बिलकुल यही होंगे। चांद पर आपका वजन आठ गुना कम हो जाएगा। इसलिए आप अगर यहां छः फीट ऊंचे कूद सकते हैं, तो चांद पर आठ गुना ज्यादा कूद सकेंगे। क्योंकि चांद की जो कोशिश है, "ग्रेवीटेशन' है, वह पृथ्वी से आठ गुना कम है। और सब वजन जमीन के खिंचाव का वजन है। अब यह हो सकता है कि जमीन आत्मा को न खींच पाती हो। यह कोई जरूरी नहीं है कि "ग्रेवीटेशन' जो है वह आत्मा को खींचता हो। तो फिर वजन नहीं होगा। अगर हम कभी किसी दिन ऐसी जगह बना लें जो "नॉन-ग्रेवीटेशनल' हो, वहां किसी का वजन नहीं होगा।
चांद पर भी जो यात्री जा रहे हैं, उनको जो सबसे महंगा और खतरनाक अनुभव होता है, वह "वेटलेसनेस' का है। जैसे ही पृथ्वी का घेरा छूटता है--दो सौ मील तक पृथ्वी खींचती है, दो सौ मील तक पृथ्वी की "ग्रेवीटेशनल फील्ड' है, दो सौ मील तक पृथ्वी की कशिश आदमी को खींचती है, दो सौ मील के बाद पृथ्वी के खींचने का घेरा समाप्त हो जाता है--उसके बाद आदमी एकदम "वेटलेस' हो जाता है। इसलिए अंतरिक्ष में जाने वाले यात्री को अगर जरा भी उसका पट्टा छूट गया जो कमर से बंधा है, तो वह फुग्गे की तरह यान में लटकेगा। फुग्गे की तरह वह, सिर उसका ऊपर जाकर यान के छत से लग जाएगा। और फिर उसको नीचे आना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि नीचे "ग्रेवीटेशन' के बिना आना बहुत मुश्किल है, उसको खींचना पड़ेगा।
तो आत्मा पर "ग्रेवीटेशन' लागू होता ही हो तो, तो ये प्रयोग ठीक हैं, पेरिस या कहीं भी किए जाते हैं, अन्यथा ठीक नहीं हैं। मेरी अपनी समझ यह है कि पदार्थ पर जो नियम काम करते हैं, वह पदार्थ की सघनता के कारण ही करते हैं। आत्मा को अगर हम ठीक से समझें तो विरलता का अंत है वह। इसलिए उस पर कोई नियम काम नहीं करते। वह नियम के बाहर हो जाती है। और जब तक हम नए नियम से उस पर खोजने नहीं जाते, जब तक हम पदार्थ के नियमों को ही आधार बनाकर आत्मा के संबंध में खोज करते रहेंगे, तब तक विज्ञान का उत्तर आत्मा के संबंध में इनकार का रहेगा। वह कहेगा, नहीं है। लेकिन यह जो "साइकिक सोसाइटीज' की मैंने बात की, यह जो राइन और मायर्स के प्रयोग की मैंने बात की, यह जो ओलिवर, लाज और ब्रॉड की चर्चा की, ये सारे लोग विज्ञान की प्रतिष्ठित पदार्थ को नापने की पद्धति को छोड़कर आत्मा के अज्ञात मापदंडों की खोज कर रहे हैं। इनसे आशा बंधती है कि कुछ सूत्र धीरे-धीरे निःसृत होंगे और विज्ञान उस बात की गवाही दे पाएगा, जिस बात की गवाही रहस्यवादियों ने सदा से दी है लेकिन प्रमाण नहीं दे पाए हैं।
ओशो रजनीश
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