श्री कृष्ण स्मृति भाग 115
"कृष्ण ने किस नास्तिकता से गुजर कर इतनी गहरी आस्तिकता पायी?'
जो गहरा आस्तिक है, वह गहरा नास्तिक होता ही है। सिर्फ उथले आस्तिक उथले नास्तिकों के विरोध में होते हैं। झगड़ा सदा उथलेपन का है। गहरे में कोई झगड़ा नहीं है। झगड़ा सिर्फ नासमझ आस्तिकों का नासमझ नास्तिकों से है। समझदार आस्तिक नास्तिक से झगड़ने नहीं जाएगा। समझदार नास्तिक आस्तिक से झगड़ने नहीं जाएगा। क्योंकि समझ कहीं से भी आ जाए, एक पर पहुंच जाती है। आस्तिक कहता क्या है? आस्तिक इतना ही कहता है कि परमात्मा है। लेकिन जब आस्तिकता की गहराई बढ़ती है तो परमात्मा दूसरा नहीं रह जाता। मैं ही परमात्मा हो जाता हूं। नासमझ आस्तिक कहता है, वहां है परमात्मा; कहीं और। समझदार आस्तिक कहता है, यहीं है परमात्मा; यहीं। नास्तिक कहता है, कहीं कोई परमात्मा नहीं है। अगर नास्तिक और गहरी समझ में जाए तो उसका भी मतलब यही है कि कहीं कोई परमात्मा नहीं है। मतलब, जो है, उसके अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं है, जो है, वही है। वह उसे प्रकृति का नाम देता है।
नीत्से का एक वचन है, और नीत्से गहरे-से-गहरे नास्तिकों में एक है। उतना ही गहरा, जितना कोई आस्तिक कभी गहरा होता है। नीत्से का एक वचन है कि यदि कहीं भी कोई परमात्मा है तो मैं बर्दाश्त न कर पाऊंगा, क्योंकि फिर मेरा क्या होगा? यानी वह यह कह रहा है कि अगर कहीं भी कोई परमात्मा है, मैं बर्दाश्त न कर पाऊंगा, मेरा क्या होगा? तब मैं कहां खड़ा होता हूं फिर? और अगर किसी को परमात्मा होना ही है, तो मेरे होने में हर्ज क्या है? मैं ही परमात्मा हो जाऊंगा। अब यह घोर नास्तिक है। यह कहता है, कोई परमात्मा नहीं है, क्योंकि मतलब यह है कि जो है वही परमात्मा है। यह अतिरिक्त परमात्मा को सोचने की बात गलत है। गहरा आस्तिक भी यही कहता है कि अतिरिक्त परमात्मा नहीं है। जो है वही परमात्मा है।
मैंने गहरी आस्तिकता और गहरी नास्तिकता में कभी कोई फर्क नहीं देखा। असल में आस्तिक विधेयवाची शब्दों का प्रयोग करता है, इतना ही फर्क है। और नास्तिक निषेधवाची शब्दों का प्रयोग करता है, इतना ही फर्क है। इसलिए जो विधेयवादी आस्तिक था उसने बुद्ध को, महावीर को नास्तिक कहा है। बुद्ध और महावीर राजी नहीं हैं नास्तिक मानने को अपने को। सांख्य या योग उथले आस्तिक को नास्तिक दिखाई पड़ते हैं। लेकिन सांख्य और योग नास्तिक नहीं हैं। नास्तिक उस अर्थों में नहीं हैं जिस अर्थों में दिखाई पड़ते हैं। सिर्फ वे जो शब्द का प्रयोग करते हैं, वह निषेध का है। कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्ति उथले आस्तिकों को नास्तिक मालूम पड़ सकते हैं, क्योंकि वह जो शब्द का प्रयोग करते हैं वह "निगेटिविटी' के शब्द हैं, वह "निगेटिव माइंड' पर उनका जोर है। और मुसीबत यह है कि कोई भी शब्द का हम उपयोग करें, दो ही उपाय हैं--या तो "पाजिटिव' शब्द का उपयोग करें, या "निगेटिव' शब्द का उपयोग करें।
आस्तिक कह रहा है, जो है, वह ईश्वर है। वह विधेयात्मक वक्तव्य दे रहा है। नास्तिक कह रहा है, जो है, वह ईश्वर नहीं है। वह निषेधात्मक वक्तव्य दे रहा है। ऐसे भी लोग हुए हैं जो इन दोनों गहराइयों को स्पर्श करते हैं। जैसे उपनिषद कहते हैं, नेति-नेति। उपनिषद कहते हैं, यह भी नहीं है, वह भी नहीं है। और जो है, वह कहा नहीं गया है। ऐसे नास्तिक भी आधा कहता है, आस्तिक भी आधा कहता है। "नीदर दिस, नॉर दैट'। न यह, न वह। दोनों ही आधी-आधी बातें कहते हैं। हम पूरी कहते हैं, और पूरी कही नहीं जा सकती है। इसलिए हम चुप रह जाते हैं। वे लोग भी। कृष्ण को किसी नास्तिकता से गुजरने का कारण नहीं है, क्योंकि कृष्ण किसी उथली आस्तिकता को पकड़ने के लिए आतुर भी नहीं हैं। असल में कृष्ण जो है उसका इतने गहनता में स्वीकार करते हैं कि उसे क्या नाम दिया जाता है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसे ईश्वर कहो, उसे प्रकृति कहो--उसे अनीश्वर कहो तो भी क्या फर्क पड़ता है! जो है वह है। ये पौधे फिर भी हंसेंगे, ये फूल फिर भी खिलेंगे, ये बादल फिर भी चलेंगे, यह पृथ्वी फिर भी होती रहेगी, ये चांदत्तारे घूमते रहेंगे, यह जीवन उतरेगा और विदा होगा, लहरें बनेंगी और मिटेंगी। ईश्वर है या नहीं, यह सिर्फ नासमझों का विवाद है। जो है, उसे क्या फर्क पड़ता है, "दैट व्हिच इज', उसमें क्या फर्क पड़ता है।
मैं एक गांव में ठहरा हुआ था और उस गांव के दो बूढ़े आदमी मेरे पास आए। एक उसमें जैन था और एक उसमें ब्राह्मण था। वे दोनों पड़ोसी थे। दोनों बूढ़े, और उनका विवाद लंबा था। असल में सब विवाद लंबे होते हैं, क्योंकि विवाद में कोई अंत तो आता नहीं। वे लंबे होते चले जाते हैं। आदमी चुक जाते हैं और विवाद चलते जाते हैं। उन दोनों का विवाद लंबा था। कोई साठ साल के ऊपर दोनों की उम्र थी। वे मुझसे मिलने आए और उन्होंने कहा कि हम एक सवाल लेकर आए हैं जो कि हमारे बीच कोई पचास साल से चलता है। मैं ईश्वर को नहीं मानता हूं, यह सज्जन ईश्वर को मानते हैं। आपका क्या कहना है? मैंने कहा, आपने विवाद पूरा कर लिया, तीसरे के लिए उपाय कहां है? आधा-आधा आप बांट चुके हैं। अब मैं कहां खड़ा होऊं? फिर मैंने उनसे पूछा कि चालीस-पचास साल से आप विवाद करते हैं, कुछ तय नहीं हो पाता? मेरी दलीलें मुझे ठीक लगती हैं, इनकी दलीलें इन्हें ठीक लगती हैं। न मैं इनको गलत कर पाता, न यह मुझे गलत कर पाते। तो मैंने उनसे कहा कि आपको पता है, यह आपकी जिंदगी में चालीस-पचास साल चला, मनुष्य की जिंदगी में कितना लंबा है यह विवाद? आज तक कोई आस्तिक किसी नास्तिक को समझा पाया? कोई नास्तिक किसी आस्तिक को समझा पाया? क्या इससे यह पता नहीं चलता कि दोनों के पास कहीं आधी-आधी दलीलें तो नहीं हैं। क्योंकि दोनों अपनी-अपनी दलील पर मजबूत हैं। और कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्य का आधा-आधा छोर पकड़े हुए हैं? इसलिए दोनों को हाथ में छोर दिखाई पड़ता है। और उससे विपरीत छोर को वे कैसे मान सकते हैं कि वह भी होगा!
मैंने कहा कि मैं तुम्हारे विवाद में न पड़ूं, तो सहयोगी हो सकता हूं। क्योंकि अगर मैं विवाद में पड़ जाऊं तो ज्यादा-से-ज्यादा यही होगा कि मैं एक पक्ष में खड़े होकर दलीलें दूं। क्या उससे कोई अंतर पड़ेगा? तो मैं तुमसे यह कहता हूं कि अब तुम दोनों जाओ और इस बात को देखने की कोशिश करो कि दूसरा जो कह रहा है, क्या उसमें भी सत्य हो सकता है? अब तुम इसकी फिक्र छोड़ दो कि मैं जो कह रहा हूं उसमें सत्य है--उसमें है ही। उसके लिए मैं राजी हूं, तुम जो कह रहे हो उसमें सत्य है। अब रह गया इतना कि दूसरा जो कह रहा है उसे असत्य मानकर ही मत चलो, उसमें भी खोजो कि क्या सत्य है? फिर मैंने उनसे कहा कि और अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर है, पक्का हो जाए, "गारंटीड', कोई लिखकर दे दे, और यह निर्णय हो जाए कि ईश्वर है, तो तुम क्या करोगे? उन्होंने कहा, करना क्या है? मैंने कहा और अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर नहीं है, तो तुम क्या करोगे? उन्होंने कहा, नहीं, करना क्या है? तो फिर मैंने कहा कि इस व्यर्थ विवाद में क्यों पड़े हो? तुम ईश्वर नहीं है तो भी श्वास लेते हो। इनका ईश्वर है, तो भी यह श्वास लेते हैं। तुम ईश्वर को नहीं मानते तो भी प्रेम करते हो। यह ईश्वर को मानते हैं तो भी प्रेम करते हैं। तुम ईश्वर को नहीं मानते तो ईश्वर तुम्हें दुनिया के बाहर निकाल कर नहीं कर देता, तुम्हें स्वीकार करता है। यह ईश्वर को मानते हैं तो इनको किसी सिंहासन पर नहीं बिठा दिया है उसने। वह इनकी भी फिक्र नहीं करता है। अब जब ऐसी स्थिति हो, तो इस विवाद का कितना अर्थ है!
नहीं, ईश्वर और अनीश्वर को लेकर, आस्तिक और नास्तिक को लेकर "लिंग्विस्टिक' भूल हो गई है। सिर्फ भाषा की भूल हो गई है। और हमारी अधिक "फिलासफी', तत्त्वचिंतन जिसे हम कहते हैं, तत्त्वचिंतन नहीं है, "फिलालाजी' में की गई भूलें हैं, भाषाशास्त्र में की गई भूलें हैं। और भाषाशास्त्र की भूलें ऐसी हैं कि अगर उनको हम सत्य मानकर चल पड़ें, तो बड़े उपद्रव बन जाते हैं। समझ लो कि एक गूंगा आदमी है और नास्तिक है, और एक गूंगा आदमी है और आस्तिक है। इनके बीच विवाद कैसे चलेगा? ये क्या करेंगे जिससे कि ये कहें कि मैं आस्तिक हूं और एक कहे कि मैं नास्तिक हूं? एक दिन को सोचें कि चौबीस घंटे के लिए हमारी भाषा खो जाए, तो हमारे विवाद कहां होंगे? चौबीस घंटे के लिए आपकी भाषा छीन ली जाए, बस, धर्म वगैरह नहीं। धर्म वगैरह आप सम्हालकर रखिये। शास्त्र वगैरह नहीं, बिलकुल छाती से लगा रखिये। सिद्धांत वगैरह नहीं, आपको जो मानना हो तो मानते रहिये। चौबीस घंटे के लिए अगर आपकी भाषा छीन ली जाए, तो कहां होगा हिंदू, कहां होगा मुसलमान, कहां होगा आस्तिक, कहां होगा नास्तिक? और आप तो होंगे फिर भी भाषा के बिना। वह क्या होंगे आप? वह होना ही धार्मिक होना है।
एक छोटी-सी घटना और अपनी बात मैं बंद करूं। मैंने सुना है, मार्क ट्वेन एक मजाक किया करता था। वह मजाक किया करता था कि एक बार ऐसा हुआ कि सारी पृथ्वी के लोगों ने तय किया कि अगर हम सब मिलकर किसी एक क्षण में जोर से चिल्लाएं तो चांद तक आवाज पहुंच सकती है। और अगर चांद पर कोई होगा तो सुन लेगा और जवाब भी आ सकता है, वे लोग अगर इकट्ठे होकर जवाब दें। क्योंकि चांद पर आदमी की आंखें बहुत दिन से गड़ी हैं। चांद से संबंध जोड़ने का मन बड़ा पुराना है। बच्चा पैदा नहीं होता और चांद से संबंध जोड़ना शुरू कर देता है। तो सारी पृथ्वी के लोगों ने एक खास दिन नियत किया और ठीक बारह बजे दोपहर सारी दुनिया के लोग जोर से हुंकार करेंगे--हूऽऽ की आवाज करेंगे, इकट्ठे। चांद तक आवाज पहुंच जाएगी, शायद उत्तर मिल सकेगा, अगर कोई वहां होगा तो सुनाई पड़ जाएगा।
फिर यह हुआ, वह दिन आ गया। और बारह बजे की आतुरता से लोगों ने सड़कों पर और गांवों में फैलकर प्रतीक्षा की। पहाड़ों पर, चोटियों पर, सब तरफ लोग फैल गए पूरी पृथ्वी पर। ठीक बारह बजे और एकदम सन्नाटा छा गया, कोई चिल्लाया नहीं। क्योंकि सबने सोचा कि मैं सुन तो लूं कि हूऽऽ की आवाज! सारी पृथ्वी चिल्लाएगी तो एक मौका मैं न चूकूं चिल्लाने में, मैं सुन लूं। तो उस दिन बारह बजे जैसा सन्नाटा हुआ पृथ्वी पर, ऐसा कभी नहीं हुआ था।
अगर ऐसा सन्नाटा कभी हो जाए, तो जो दिखाई पड़ता है वह सत्य है। ऐसा सन्नाटा अगर भीतर हो जाए और भाषा और शब्द सब खो जाएं, तो जो दिखाई पड़ता है वह सत्य है।
सत्य का आधा हिस्सा आस्तिकों के पास है, सत्य का आधा हिस्सा नास्तिकों के पास है। और आधा सत्य असत्य से सदा बदतर होता है। क्योंकि असत्य को छोड़ा भी जा सकता है, आधे सत्य को छोड़ा भी नहीं जा सकता। वह सत्य मालूम पड़ता है। और ध्यान रहे, सत्य तोड़ा नहीं जा सकता, काटा नहीं जा सकता। इसलिए अगर आपके पास आधा सत्य है, तो सिर्फ आधे सत्य का सिद्धांत हो सकता है। सिद्धांत काटा जा सकता है, सत्य को काटने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए न नास्तिक सत्य है, न आस्तिक सत्य है। दोनों आधे-आधे सत्यों के शब्दों को पकड़कर लड़ते रहते हैं।
कृष्ण को पूरा ही स्वीकार है। इसलिए कृष्ण को आस्तिक कहें, तो गलती हो जाएगी। कृष्ण को नास्तिक कहें, तो गलती हो जाएगी। कृष्ण को क्या कहें बिना गलती किए, कहना मुश्किल है।
ओशो रजनीश
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