श्री कृष्ण स्मृति भाग 117

 "भगवान श्री, कृष्ण ने गीता के अध्याय दस में अपने घोड़ों में उच्चैःश्रवा, हाथियों में ऐरावत, गौवों में कामधेनु, सर्पों में वासुकि, पशुओं में सिंह, पक्षियों में गरुड़, नदियों में गंगा, ऋतुओं में वसंत आदि बताया है। अर्थात अपने को सर्वश्रेष्ठ बताने का प्रयत्न किया है। तो क्या वे निकृष्ट वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते? क्या निकृष्ट वर्ग कृष्ण का रूप नहीं था? उन्होंने निकृष्ट और साधारण का जिक्र क्यों नहीं किया?'


यह बड़ा मजेदार सूत्र है। इस सूत्र में दो बातें हैं।

पहली बात तो यह है कि कृष्ण इसमें अपने को सभी में श्रेष्ठ घोषित करते हैं--ऋतुओं में वसंत कहते हैं, हाथियों में ऐरावत कहते हैं, गायों में कामधेनु कहते हैं। लेकिन दूसरी मजे की बात यह भी है कि गाय और घोड़े जैसे निम्नतम प्राणियों में भी वे अपनी तुलना खोजते हैं। ये दो बातें एकसाथ हैं। ये दो बातें एकसाथ हैं! इधर वह हर जाति में अपने को श्रेष्ठ घोषित करते हैं, लेकिन इसकी जरा भी फिक्र नहीं करते कि जाति किसकी है। आखिर ऐरावत भी होंगे तो हाथियों में ही होंगे न, और कामधेनु होंगे तो गायों में ही होंगे न, और वसंत होंगे तो ऋतुओं में ही होंगे न!

ये दो बातें एकसाथ हैं। निम्नतम में भी जो श्रेष्ठतम है, उसकी वे घोषणा करते हैं। कारण हैं। इस श्रेष्ठतम की घोषणा क्यों की जा रही है? ऊपर से देखने पर लगेगा कि अहंकार की बात है--क्योंकि हमें सिवाय अहंकार के कुछ और लगता ही नहीं। भीतर से देखने पर पता चलेगा कि जब प्रत्येक जाति में, प्रत्येक वर्ग में श्रेष्ठतम की बात कही जा रही है, तो उसका कुल मतलब ही इतना है कि जब वह कहते हैं हाथियों में ऐरावत हैं, तो वह यह कहते हैं कि जो हाथी ऐरावत नहीं हो पाए, वे अपने स्वभाव से च्युत रह गए हैं। ऐसे तो हर हाथी ऐरावत होने को पैदा हुआ है। जो ऋतु वसंत नहीं हो पाई, वह ऋतु होने से च्युत हो गई, उसके स्वभाव से च्युत हो गई। ऐसे तो हर ऋतु वसंत होने को पैदा हुई है। जो गाय कामधेनु नहीं हो पाई, वह असल में ठीक अर्थों में गाय ही नहीं हो पाई है, वह अपने स्वभाव से च्युत हो गई है। कृष्ण इस घोषणा में सिर्फ इतना ही कहते हैं कि मैं प्रत्येक स्वभाव की सिद्धि हूं। जो जो हो सकता है चरम शिखर पर, वह मैं हूं। इसका मतलब आप समझे?

इसका मतलब यह हुआ कि जो हाथी ऐरावत नहीं है वह कृष्ण नहीं है, ऐसा नहीं, वह भी कृष्ण है, लेकिन पिछड़ा हुआ कृष्ण है; वह ऐरावत नहीं हो पाया, जो कि हो सकता है, जो कि वह "पोंटेंशियली' है। कृष्ण यह कह रहे हैं कि सबके भीतर जो "पोंटेंशियली' है, वह मैं हूं। इसको अगर पूरे सार में हम रखें, तो इसका मतलब हुआ कि सबके भीतर जो बीजरूप संभावना है, जो अंतिम उत्कर्ष की संभावना है, जो अंतिम विकास का शिखर है, वह मैं हूं। और जो इससे जरा भी पीछे छूट जाता है, वह अपने स्वभाव के शिखर से च्युत हो जाता है। वह अपने को पाने से वंचित रह गया है। इसमें कहीं कोई--कहीं भूलकर भी कोई अहंकार की घोषणा नहीं है। इसका सीधा और साफ मतलब इतना ही है कि तुम जब तक हाथियों में ऐरावत न हो जाओ, तब तक तुम मुझे न पा सकोगे। तुम जब तक ऋतुओं में वसंत न हो जाओ, तब तक तुम मुझे न पा सकोगे। तुम अपने पूरे खिलने में, अपनी पूरी "फ्लावरिंग' में ही मुझे पाते हो। वह अर्जुन को यही समझा रहे हैं, वह उसको यही कह रहे हैं कि क्षत्रियों में तू पूरा श्रेष्ठ हो जा तो तू कृष्ण हो जाएगा।

अगर कृष्ण कभी हजार-दो हजार साल बाद आते, तो वह जरूर कहते कि क्षत्रियों में मैं अर्जुन हूं। मगर हजार-दो हजार साल बाद। तो वह जरूर कहते कि क्षत्रियों में मैं अर्जुन हूं। जब कृष्ण अपने होने की यह घोषणा कर रहे हैं, तो यह श्रेष्ठता का दावा नहीं है। क्योंकि श्रेष्ठता का दावा करने के लिए घोड़ों और हाथियों में जाना पड़ेगा? गायों-बैलों में जाना पड़ेगा? श्रेष्ठता का दावा तो सीधा ही हो सकता है, पर वह सीधा नहीं कर रहे हैं। असल में वह श्रेष्ठता का दावा ही नहीं कर रहे हैं। वह एक जागतिक विकास की बात कर रहे हैं कि जब तुम अपने श्रेष्ठतम रूप में प्रकट होते हो, तब तुम प्रभु हो जाते हो।

शब्द है हमारे पास, ईश्वर। ईश्वर शब्द बनता है ऐश्वर्य से ही। जब तुम अपने पूरे ऐश्वर्य में प्रकट होते हो, तो ईश्वर हो जाते हो। ईश्वर तो ऐश्वर्य का ही रूप है। लेकिन हमने कभी सोचा नहीं। ईश्वर का मतलब ही यह है कि गायों में कामधेनु और हाथियों में ऐरावत, और ऋतुओं में वसंत। जब भी कोई अपने पूरे ऐश्वर्य में प्रकट होता है तो वह ईश्वर हो जाता है। ईश्वर का मतलब ही यह है कि जिसकी "पोटेंशियलिटी' और "एक्चुअलिटी' में फर्क नहीं है। जिसकी वास्तविकता में और जिसकी संभावना में कोई फर्क नहीं है। जिसके जीवन में संभावना और वास्तविकता एक ही हो गई है। जो संभावना थी वह पूरी-की-पूरी वास्तविकता बन गई है, वह ईश्वर है। जिसकी संभावना और वास्तविकता में अंतर है, "डिस्टेंस' है, वह अभी ईश्वर की तरफ यात्रा कर रहा है। तो जो मेरे भीतर छिपा है, जिस दिन पूरी तरह प्रकट हो जाएगा, उस दिन मैं अपने ईश्वर को उपलब्ध हो जाता हूं। लेकिन अभी, जो मेरे भीतर छिपा है, वह थोड़ा-थोड़ा प्रकट होता है। वह पूरा वसंत नहीं बन पाता है। वह सरकता रहता है, वसंत की तरफ सरकता है लेकिन वसंत नहीं हो पाता है। फूल पूरा नहीं खिल पाता है। अगर कृष्ण इस बगिया में आएं और वह कहें कि इन फूलों में मैं सबसे ज्यादा खिला हुआ फूल हूं, तो क्या मतलब होगा? उसका मतलब यह हुआ कि दूसरे फूल भी इतने ही खिल सकते थे, नहीं खिल पाए हैं। और उचित ही है कि कृष्ण अधखिले फूल से अपने को नहीं जोड़ते हैं। उचित ही है कि जो अभी कली में बंद है, उससे नहीं जोड़ते। उचित ही है कि जो अभी शाखाओं में छिपा है, उससे नहीं जोड़ते। उचित ही है कि जो बीज में पड़ा है उससे नहीं जोड़ते। वे उससे जोड़ते हैं जो पूरा खिला है, क्योंकि जिससे वह बात कर रहे हैं उसको पूरे खिलाने की ही बात कर रहे हैं कि तू पूरा खिल जा, तू क्षत्रियत्व का पूरा फूल बन जा, तू वसंत हो जा क्षत्रियत्व का। तो तू मुझे पा सकेगा। मुझे पा सकेगा से मतलब, कि तू अपने ईश्वर को पा सकता है।

यहां कृष्ण पूरे समय दोहरा काम कर रहे हैं। कृष्ण का पूरा "रोल डबल' है। इधर वह अर्जुन के साथी हैं, उसके मित्र हैं और इसलिए अर्जुन पर ज्यादा डांट-डपट नहीं कर पाते हैं, उससे मित्रता की भाषा बोलते हैं, लेकिन साथ-ही-साथ पूरे समय खिले फूल भी हैं। और उनकी इस मित्रता के बीच-बीच में उनकी पूर्णता की घोषणायें जगह-जगह से फूट पड़ती हैं और अर्जुन तक पहुंच जाती हैं। और ये दोनों जरूरी हैं। अगर वह निपट मित्र रह जाएं, तो किसी काम के नहीं रहेंगे, और अगर वह निपट परमात्मा हो जाएं तो अर्जुन कहेगा कि क्षमा करो, अपनी दोस्ती समाप्त! इन दोनों के बीच उनको पूरे वक्त तालमेल बिठालना पड़ रहा है। वह अर्जुन के मित्र भी बने रहते हैं और परमात्मा होने की घोषणा भी बीच-बीच में कर जाते हैं। जब-जब भी उन्हें लगता है कि अर्जुन जरा राजी दिखता है, तबत्तब वह परमात्मा होने की घोषणा करते हैं, हे महाबाहो! तब वे फिर उससे मित्रता की बातें करने लगते हैं--हे भारत, हे महाबाहो! फिर उससे मित्रता की बातें करने लगते हैं, उनका काम बड़ा "डेलिकेट' और बड़ा नाजुक है। ऐसा नाजुक मौका बहुत कम आया है।

बुद्ध के पास ऐसा नाजुक मौका नहीं है। क्योंकि जो आया है, वह निश्चित है कि कौन है; जो बैठा है, वह निश्चित है कि कौन है, बात सीधी-साफ होती है। महावीर को ऐसा मौका नहीं आता, क्योंकि बातें साफ-सुथरी हैं, सीधा "डायलाग' है। उसमें कुछ दोहरे "रोल' का काम नहीं है। कृष्ण के साथ बड़ी कठिनाई है, वहां "रोल' बड़ा दोहरा है। मित्र के गुरु होना बड़ी कठिन बात है। मित्र को उपदेश देना बड़ी कठिन बात है। मित्र को सलाह देना बड़ी कठिन बात है। क्योंकि वह जो मित्र है, वह कहेगा कि बस बंद करो, ज्यादा ज्ञान मत बघारो, अर्जुन कह सकता है कि ज्यादा ज्ञान मत बघारो! मेरे ही साथ खेले, मेरे साथ बड़े हुए, इतना ज्ञान मत बघारो। अगर ज्यादा ज्ञान दिखाई पड़े तो अर्जुन छूट जाएगा बाहर। तो कृष्ण पूरे वक्त दोनों काम कर रहे हैं, उसे थपथपाते भी जाते हैं कि हे महाबाहो, और फिर उससे कहते भी चले जाते हैं कि तू अज्ञानी है रे! तू पहचान नहीं पा रहा है कि असली बात क्या है! ये दोनों बातें साथ चल रही हैं, इसको खयाल में लेंगे तो सरलता हो सकती है।

ओशो रजनीश



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