श्री कृष्ण स्मृति भाग 118
"भगवान श्री, लगभग सभी महापुरुषों का कुछ तो चरित्र वैयक्तिक होता है, और कुछ होता है समष्टिगत। अभी पिछले दिनों में कृष्ण के जीवन पर चर्चा रही, उसमें बहुत कुछ वैयक्तिक विशेषताएं भी थीं जो कि आज के युग में मुमकिन है कि यदि हम उनका थोड़ा-सा भी अनुकरण करने लगें तो पिट जाने की ही संभावना है और तो कोई दूसरी बात दिखाई नहीं पड़ती। आज हम किसी की दधि और दूध की मटकी को कंकड़ी मारकर फोड़ नहीं सकते हैं। आज हम कहीं स्नान करती हुई किन्हीं बालाओं के वस्त्र उठाकर भाग नहीं सकते हैं। और तो और, किसी राधा के साथ चाहते हुए भी हम प्रेम नहीं कर सकते हैं। कृष्ण में और चीजें भी हैं जो समष्टिगत हैं; कृष्ण ने जो कुछ भी कहा है उसका अतीत, वर्तमान और भविष्य के लिए महत्व है, ऐसा आपने बताया। इसी संदर्भ में अब हम चाहते हैं कि कृष्ण ने गीता में जो कर्मयोग की बात कही है, अनासक्त योग की बात कही है, उनका जो यह जीवनदर्शन हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण है, जो जीवन जीने की कला सिखाता है, जीवन का एक नया मार्ग हमें देता है और हम जीवन के हर क्षण में उसे व्यवहार रूप में उतार भी सकते हैं, उनके इस जीवनदर्शन पर विशद रूप से कुछ बातें हमारे सम्मुख प्रस्तुत करें, ताकि हम उनका अनुसरण कर सकें।'
पहली बात तो यह खयाल लेनी चाहिए कि आज कृष्ण का होना कठिन हो गया है, ऐसा नहीं है। उस दिन भी आसान नहीं था। अन्यथा बहुत कृष्ण हो जाते। और आपको कठिन मालूम होता है कृष्ण होना। उस दिन भी इतना कठिन मालूम होता--आपको। कृष्ण आज पैदा हों तो आज भी उतना ही सरल होगा--कृष्ण को। लेकिन यह भ्रांति वहां से शुरू होती है जहां से हम अनुकरण का खयाल लेते हैं, वहां से उपद्रव शुरू होता है। न तो आप उस दिन कृष्ण का अनुकरण कर सकते थे, न आज कर सकते हैं। कर ही नहीं सकते हैं। और करेंगे तो ठीक कहते हैं कि मुसीबत में पड़ेंगे।
जो सारी उनके जीवन पर चर्चा हुई है, वह इसलिए नहीं कि आप अनुकरण करेंगे, बल्कि इसलिए ही कि इस कृष्ण के व्यक्तित्व के अगर पूरे जीवन को हम समझ पाएं, तो शायद अपने-अपने जीवन को समझने के लिए सुविधा हो। अनुकरण के लिए नहीं। अगर कृष्ण के व्यक्तित्व का--जो कि बड़ा विराट, बहु-आयामी है--पूरा खुलाव हो जाए, तो हम अपने व्यक्तित्व को भी खोलने की कुंजी पा सकते हैं। लेकिन अगर आप अनुकरण की भाषा में सोचेंगे, तो आप कृष्ण को नहीं समझ पाएंगे, समझना मुश्किल हो जाएगा। जिसका भी हम अनुकरण करना चाहते हैं, उसे हम समझना तो चाहते ही नहीं। और अनुकरण करना ही हम इसलिए चाहते हैं कि हम अपने को भी समझना नहीं चाहते। किसी को अपने ऊपर आरोपित करके जी लेंगे तो सुविधा होगी, समझने की झंझट से बच जाएंगे। समझने का काम तो वहीं से शुरू होता है जहां से हम न किसी का अनुकरण करना चाहते हैं, न किसी जैसे होना चाहते हैं, बल्कि इस बात का पता लगाना चाहते हैं कि मैं क्या हूं, और क्या हो सकता हूं। तो जिन लोगों ने अपनी जिंदगी में पूरी तरह खुलाव से अपने को प्रगट कर किया है, उनकी जिंदगी को समझने से अपनी जिंदगी को समझने का रास्ता सुगम हो जाता है। इससे जिंदगियां एक नहीं हो जाएंगी, जिंदगी तो अलग-अलग ही होंगी, अलग-अलग होनी ही चाहिए, कोई होने का उपाय भी नहीं है कि वह एक जैसी हो जाएं।
तो अगर इतनी सारी चर्चाओं में कहीं भूलकर भी आपके मन में अनुकरण का खयाल रहा है, जैसा कि प्रश्न से लगता है कि रहा होगा, तो आप कृष्ण को नहीं समझ पाएंगे; और कृष्ण को तो समझ ही नहीं पाएंगे, अपने को भी समझना मुश्किल हो जाता है।
दूसरी बात, कृष्ण के विचार, उनके वे सत्य, जो सदा उपयोग के लिए हो सकते हैं; लेकिन उनमें भी मैं आपसे यही कहना चाहूंगा कि वे भी अनुकरणीय नहीं हैं। क्योंकि जब कृष्ण का जीवंत व्यक्तित्व अनुकरण नहीं किया जा सकता, तो शब्दों में प्रगट सिद्धांत और सत्य कैसे अनुकरण किए जा सकते हैं! नहीं, वह भी नहीं किया जा सकता। वह भी समझा ही जा सकता है। हां, उसके समझने की प्रक्रिया में आपकी समझ बढ़ती है, और वह समझ आपके काम आ सकती है। सिद्धांत काम नहीं आएंगे, समझ ही काम आएगी। लेकिन हम हर हालत में अनुकरण हमारी मांग होती है। या तो हम जीवन का अनुकरण करें, या सिद्धांतों का अनुकरण करें, लेकिन अनुकरण हम करेंगे ही।
तो पहली बात आपसे उनके सिद्धांत के संबंध में बात करने के पहले यह कह देनी जरूरी है कि जीवन अनुकरणीय नहीं है, इसलिए नहीं कि आज मटकी नहीं फोड़ी जा सकती, इसलिए भी नहीं कि आज प्रेम नहीं किया जा सकता, इसलिए भी नहीं कि आज बांसुरी नहीं बजाई जा सकती, सब किया जा सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। मटकी फोडने से उस दिन भी तकलीफ आती थी, आज भी आएगी। बांसुरी बजाने से उस दिन भी आदमी मुश्किल में पड़ता था, आज भी पड़ेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। थोड़े-बहुत भेद होंगे, कोई बहुत बुनियादी फर्क नहीं पड़ता है। इसलिए नहीं कह रहा हूं कि अनुकरण नहीं किया जा सकता क्योंकि बहुत बुनियादी फर्क नहीं पड़ता है। इसलिए नहीं कह रहा हूं कि अनुकरण नहीं किया जा सकता क्योंकि परिस्थिति बदल गई है, अनुकरण ही गलत है--परिस्थिति बिलकुल वही हो तो भी। अनुकरण मात्र आत्मघात है। "सूसाइडल' है। अपने को मारना हो, तो ही अनुकरण ठीक है।
कृष्ण किसका अनुकरण करते हैं? कोई व्यक्तित्व दिखाई नहीं पड़ता कृष्ण ने जिसका अनुकरण किया हो। बुद्ध किसका अनुकरण करते हैं? कोई व्यक्तित्व दिखाई नहीं पड़ता जिसका बुद्ध ने अनुकरण किया हो। क्राइस्ट किसका अनुकरण करते हैं? कोई दिखाई नहीं पड़ता। बड़े मजे की और बड़े रहस्य की बात है कि उन्हीं लोगों का हम अनुकरण करते हैं जिन्होंने कभी किसी का अनुकरण नहीं किया। यह बड़ी "एब्सर्ड' बात है। अगर हम उनको समझें तो एक बात तो हमें यह समझ लेनी चाहिए कि ये लोग किसी का अनुकरण नहीं करते हैं। ये सारे-के-सारे अपनी निजता के फूल हैं। और हम? हम किसी और के फूल के ढंग से खिलना चाहेंगे तो कठिनाई में पड़ जाएंगे। और यह कठिनाई मटकी फोड़ने की कठिनाई, राधा से प्रेम की कठिनाई नहीं है, यह बहुत गहरी कठिनाई है। वे तो बहुत छोटी कठिनाइयां हैं। और उनमें तो आप रोज पड़ते रहते हैं, कोई रुकता नहीं। कोई दूसरों की स्त्रियों से प्रेम करने से रुकता हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। कोई अपनी पत्नियों से डर का दूसरे की पत्नियों का नाम न लेता हो, ऐसा भी दिखाई नहीं पड़ता। पत्नियां डराए चली जाती हैं, पति डरे चले जाते हैं; पति डराए चले जाते हैं, पत्नियां डरी चली जाती हैं, यह कोई आज की बात नहीं, वह सदा की बात है। असल में जब तक पति और पत्नी रहेंगे तब तक डर रहेगा। पति-पत्नी न हों, इसमें भी बड़ा डर लगता है। आदमी जैसा है वह चूंकि डरा हुआ है, इसलिए उसकी सारी व्यवस्था में डर व्याप्त हो जाता है।
नहीं, यह सवाल नहीं है कि अनुकरण में यह भय है। अनुकरण में जो बुनियादी भय है वह मैं आपसे कह दूं, फिर कल सुबह से आप प्रश्न उठाइये जीवन-सत्यों के संबंध में। क्योंकि जीवन के संबंध में मैं चर्चा नहीं कर रहा था, आप प्रश्न उठा रहे थे। कल सुबह से आप प्रश्न उठाइये उनके दर्शन और सत्यों के संबंध में, उसकी चर्चा कर लूंगा। जो अनुकरण का बुनियादी भय है, वह यह है कि इस जगत में दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हैं, न हो सकते हैं। बेजोड़ हैं, अद्वितीय सब हैं। कोई तुलना का उपाय नहीं। बस आप आप ही हैं, और आप जैसा पहले कभी नहीं हुआ और आप जैसा बाद में कभी नहीं होगा। असल में आपका कोई सांचा भगवान के पास नहीं है, जिस सांचे में और लोग ढाले जा सकें। और जब भी आप अपनी इस निजता को अस्वीकार कर देंगे और किसी जैसा होने की कोशिश करेंगे, तो जो भूल भगवान ने नहीं की, वह आप करेंगे। उसने आपको बनाया व्यक्ति, और आप "कॉपी' बनने की कोशिश में लग जाएंगे। उसने आपको दी निजता और आप पराए को ओढ़ने में लग जाएंगे। वह कठिनाई है।
लेकिन अब तक सभी धर्म अनुकरण पर जोर देते रहे हैं। सभी सारी दुनिया में मां-बाप, शिक्षक-गुरु सिखाते रहे हैं, किसी जैसे हो जाओ, बस अपने जैसे भर मत होना! एक भूल भर मत करना, बाकी सब करना! कृष्ण जैसे हो जाना, राम जैसे हो जाना, बुद्ध जैसे हो जाना, बस एक भूल भर मत करना, अपने जैसे मत हो जाना। क्या कारण है? ये सारी दुनिया की शिक्षाएं किसी आदमी को यह नहीं कहती कि अपने जैसे हो जाओ। कुछ कारण है।
बड़ा कारण तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अगर अपने जैसा हो जाए, तो खतरा है, समाज को, गुरुओं को, मां-बाप को, व्यवस्थाओं को, सबको खतरा है। क्योंकि कौन कैसा हो जाएगा, इसके बाबत पहले से सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता। लेकिन राम जैसे हो जाओ, इसमें खतरा नहीं है। राम के बाबत हम सुनिश्चित हैं, हमें पता है पक्का कि राम क्या करते हैं। ऐसा ही तुम भी करो, ताकि तुम खतरनाक न रह जाओ। तुम्हारे बाबत "प्रेडिक्शन' हो सके, तुम्हारे बाबत घोषणा हो सके कि तुम ऐसा करोगे। और जिस दिन तुम न करो, तो हम तुम्हें अपराधी ठहरा पाएं। अगर प्रत्येक व्यक्ति अपने जैसा हो, तो बहुत मुश्किल हो जाएगा तय करना कि क्या अपराध है और क्या अपराध नहीं है। क्या पाप है, क्या पुण्य है; क्या ठीक है, क्या गलत है; बहुत मुश्किल हो जाएगा। इसलिए समाज की जड़ व्यवस्था को इसी में सुविधा है कि सब साफ-सुथरी रेखाएं रहें, चाहे जिंदगी कट जाए और लोग मर जाएं, और चाहे उनके व्यक्तित्व समाप्त हो जाएं और उनकी आत्माएं दीन हो जाएं, इसकी कोई चिंता नहीं, लेकिन व्यवस्था!
ऐसा मालूम होता है कि मनुष्य समाज के लिए जी रहा है, समाज मनुष्य के लिए नहीं जी रहा। शिक्षा मनुष्य के लिए नहीं है, मनुष्य इसलिए पैदा हुआ है कि लोग उसको शिक्षा दे सकें। सिद्धांत मनुष्य के काम में आएं इसलिए नहीं हैं, मनुष्य इसलिए पैदा किया गया है कि सिद्धांतों के काम में आ सके। धर्म मनुष्य के लिए नहीं है, मनुष्य धर्म के लिए है। मनुष्य को नीचे रखते हैं, साधन बनाते हैं और मनुष्य के ऊपर सब चीजों को थोप देते हैं। खतरा यह है। अनुकरण का खतरा परिस्थितिगत खतरा नहीं है, आत्मगत खतरा है। अनुकरण का खतरा अपने को धीरे-धीरे मारने और "पायज़निंग' का खतरा है, अपने को धीरे-धीरे जहर देने का खतरा है; और उस जहर पर आपने कृष्ण का "लेबल' लगा रखा है, कि बुद्ध का, कि महावीर का, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
दुनिया में कोई "टाइप' नहीं है जिसमें सबको ढलना है। प्रत्येक को अपने जैसा होना है। इसलिए कृष्ण पर जो मैं बात कर रहा हूं, कोई भूलकर यह न समझ ले कि मैं आपसे कह रहा हूं आप कृष्ण जैसे हो जाएं। नहीं, बाहर से जो मुसीबतें आएंगी वे गौण हैं, भीतर से जो मुसीबत आएगी वही असली है। आप बिना मुर्दा हुए कृष्ण जैसे नहीं हो सकते। और मुर्दे अगर पिट जाएं, तो आश्चर्य है कुछ! मुर्दे पिटेंगे ही। वह जो डर है पिटाई का, वह मुर्दा होने का डर है। जिंदा आदमी तो जैसा होता है, होता है। और जितना जिंदा आदमी होता है, उतना ही जैसा होता है वैसा ही होता है।
और बड़े मजे की बात है कि जो समाज जिंदा आदमी की निंदा से शुरू करती है यात्रा, वह प्रशंसा पर पूरी करती है। सदा ऐसा हुआ है। जिंदा आदमी को गाली से हम प्रारंभ करते हैं, उसकी निंदा से शुरू करते हैं और आखिर में पूजा पर अंत होता है। यह हमारा ढंग है। यह बात दूसरी है कि वह जिंदा आदमी पूरा जिंदा न हो, बीच से लौट जाए, यह बात दूसरी है। अगर वह जिंदा आदमी पूरा है, तो तो आपकी गाली पूजा तक पहुंचेगी ही, सदा पहुंचती रही है। उसका अपना "लाजिक' है। हां, अगर वह मुर्दा आदमी है तो डर जाएगा, गाली से लौट जाएगा, पूजा तक नहीं पहुंच पाएगा। यह उसका कसूर है। इसमें आपकी कोई गलती नहीं है। आपने तो ठीक शुरुआत की थी, वह बीच से भाग गया।
कृष्ण को इससे कोई फिक्र नहीं पैदा होती। क्या आप सोचते हैं कृष्ण भगवान की तरह स्वीकृत हो गए थे उस दिन? नहीं; कृष्ण पर सब दोषारोपण थे। और आज भी अगर आप अपनी आंख बचाकर ही चलें तो ही दोषारोपण से बच सकते हैं कृष्ण पर, अन्यथा बहुत मुश्किल है मामला! सब दोषारोपण थे। और जीसस को जब सूली दी गई, तो जिन लोगों ने सूली दी थी उन्होंने एक आवारा आदमी को सूली दी थी। तीन "क्रास' खडे किए थे, बीच में जीसस को लटकाया था, दोनों तरफ दो चोर भी लटकाए थे। इस बात की सूचना के लिए जीसस की हैसियत हम चोरों से ज्यादा नहीं समझते हैं। और मजे की बात यह है कि और लोगों ने मजाक किया हो किया हो, एक चोर ने भी मरते वक्त आखिरी समय जीसस से मजाक किया था। और उस चोर ने भी कहा था कि अब तो हम साथ ही मर रहे हैं, बड़ा संबंध हो गया, अगर तुम्हारे प्रभु के राज्य में जाऊं तो जरा जगह मेरे लिए बना देना! वह भी संदिग्ध है कि कहां का प्रभु का राज्य और कहां का क्या! चोर ज्यादा आश्वस्त था। वे लोग जो सूली पर लटका रहे थे, वे ही नहीं निश्चित थे कि यह आदमी आवारा और फिजूल है, वे चोर भी यही समझ रहे थे--तुमसे बेहतर तो हमीं हैं। कुछ करके मर रहे हैं, तुम बिना ही किए मरे जा रहे हो।
कृष्ण या क्राइस्ट को, या महावीर या बुद्ध को उनका समाज एकदम से उन्हें भगवान नहीं कह देता है। गालियों से शुरू करता है। पर वे जिंदा आदमी हैं, वे गालियां पिये चले जाते हैं, फिर कब तक आप गालियां देंगे? और जो आदमी गालियां पिये ही चला जाता है, फिर धीरे-धीरे आप उसका सम्मान करने लगते हैं। फिर वह सम्मान को भी पीता चला जाता है, वह उससे भी प्रभावित नहीं होता है, तब फिर आप उसको भगवान बनाने में लग जाते हैं।
कृष्ण की चर्चा मेरे लिए इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि आप उनका अनुकरण करने जाएं, इसलिए महत्वपूर्ण है कि ऐसा व्यक्ति, इतना "मल्टी-डायमेंशनल' व्यक्ति पृथ्वी पर नहीं हुआ। इस बहु-आयामी व्यक्तित्व के अगर सारे खजाने आपके सामने खुल जाएं, तो आपको अपने खजाने खोलने का खयाल आ सकता है। बस, इससे ज्यादा नहीं। आपके खजाने आपके होंगे, और कोई नहीं कह सकता कि आपके खजाने कृष्ण से ज्यादा गहरे और ज्यादा समृद्ध नहीं होंगे। यह कोई सवाल नहीं है। लेकिन जो कृष्ण के भीतर घटित हुआ, वह किसी और के भीतर भी घटित हो सकता है इसका स्मरण ही काफी है। उस स्मरण के लिए ही सारी चर्चा है।
लेकिन आप पूछते हैं कि जीवन-सिद्धांत। हमारा मन होता है कि कोई सिद्धांत मिल जाएं तो उनको आरोपण करना आसान होगा। उनके सिद्धांतों की कल सुबह से हम चर्चा करेंगे, लेकिन वह भी आरोपण के लिए नहीं। वह भी जिंदगी को समझने के लिए। कृष्ण जैसे लोग जब पैदा होते हैं, तो जिंदगी को बड़ी गहराई से देखते हैं, और गलती होगी यह कि हम उनकी आंख में आंख डालकर थोड़ी देर जिंदगी को न देखें। उनकी आंख में आंख डालकर जिंदगी को देख लेने से हमारी भी देखने की क्षमता, हमारा "पर्सपेक्टिव' बदलता है। यह मनाली आप आए हैं। ये चारों तरफ पहाड़ हैं, लेकिन आपके पास जितनी आंख है और जितना "पर्सपेक्टिव' है उतना सौंदर्य ही तो इन पहाड़ों में दिखाई पड़ेगा? यहीं निकोलस रोरिक भी था, उसके चित्र आप देख आएंगे तो ये पहाड़ कुछ और कहते हुए मालूम पड़ने लगेंगे, तत्काल, क्योंकि उसकी आंख में से आपने आंख डालकर देखना शुरू कर दिया। और वह निकोलस रोरिक ठेठ रूस से यात्रा करके इन पहाड़ों में आ गया था। और आज तो रास्ता है, तब तो रास्ता भी नहीं था, और तब फिर वह जिंदगी भर यहीं रह गया था। इस हिमालय ने उसे बिलकुल ही पागल कर दिया था। जहां तक मेरा खयाल है, आपको काफी दिन हो गए हिमालय में आए और अब शायद ही आपको पहाड़ियां दिखाई पड़ती होंगी। पहले दिन दिखाई पड़ी होंगी--थोड़ी बहुत देर--अब नहीं दिखाई पड़ती होंगी। अब बात खत्म हो गई है। पहाड़ हैं, ठीक है, बात खतम हो गई।
लेकिन निकोलस जिंदगी भर लगा रहा यहां। और एक ही पहाड़ों को पोतता रहा, रंगता रहा, जिंदगी भर। और पहाड़ नहीं चुके, और निकोलस का मन नहीं चुका। तो निकोलस से अगर आप देख पाएंगे एक दफा, तो ये पहाड़ आपको कुछ और कहते दिखाई पड़ने लगेंगे। एक आदमी ने जिंदगी भर इन्हीं को देखने में लगाया। और हजार रंगों में, कभी सूरज में, कभी वर्षा में, कभी बर्फ में, कभी धूप में। और हजार रंगों में इन पहाड़ों को देखा। सैकड़ों ढंगों से इन पहाड़ों को देखा--कभी चांद में, कभी अंधेरे में, कभी सूरज में, कभी वर्षा में, कभी बर्फ में, कभी धूप में। और उस आदमी ने अपने भी हजार रंगों में इन पहाड़ों को देखा। और जिंदगी भर बस इन पहाड़ों को ही रंगता रहा। आखिरी वक्त, मरते वक्त भी इन पहाड़ों को ही रंग रहा था। इस आदमी से अगर आप थोड़ा परिचित हो लेंगे, इन पहाड़ों के बीच में खड़े होकर आपको इन पहाड़ों में कुछ और दिखाई पड़ने की संभावना शुरू होती है। मैं नहीं कहता कि निकोलस ने जैसा देखा वैसा आप देखना--आप देख भी नहीं सकते, उपाय भी नहीं है--लेकिन निकोलस को जानने के बाद ये पहाड़ सिर्फ साधारण पहाड़ नहीं रह जाएंगे, जो एक दफे देखकर चुक जाते हैं।
प्रेम तो बहुत लोगों ने किया है, लेकिन कभी फरहाद और मजनूं को पढ़ लेना उपयोगी है। हमारा प्रेम जल्दी चुक जाता है। पता ही नहीं चलता कब चुक गया। ठीक से याद भी नहीं कर सकते कि कभी था। सब रूखा-सूखा रह जाता है भीतर। नदी आने के पहले ही विदा हो जाती है और मरुस्थल हो जाता है। लेकिन कुछ ऐसे भी लोग रहे हैं जो कि जिंदगी भर प्रेम किए ही चले गए हैं। और इनके प्रेम का कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। अगर इन प्रेम करने वालों से आप थोड़े परिचित हुए तो अपने प्रेम को समझने में बड़ी सुविधा हो जाएगी और हो सकता है कि आपके भीतर भी कोई धारा अंतर्गर्भ में बहती हो और उसका स्मरण आ जाए। ऐसा नहीं कि आप मजनूं हो जाएंगे। उसका कोई उपाय नहीं है। होना भी नहीं है। और हुआ हुआ मजनूं क्या मजनूं हो सकता है? बाल वगैरह लटका लेगा मजनूं की तरह, कपड़े-लत्ते पहन लेगा मजनूं की तरह, सड़क पर गुजरने लगेगा, चिल्लाने लगेगा--लैला, लैला; नहीं, सब बेकार होगा। उसमें कोई मतलब नहीं होगा। उसके भीतर से तो कहीं कुछ आएगा नहीं।
लेकिन, आपका भी अपना प्रेम है जो मजनूं और फरहाद के प्रेम से शायद सजग हो जाए, सुलग जाए। शायद बारूद आग पकड़ जाए और आपको भी पता चले कि मैं भी ऐसे ही चुक जाने वाला नहीं हूं, मेरे भीतर भी कोई धारा है। उसी अर्थ में कह रहा हूं। बहुत लोगों ने गीत लिखे हैं, लेकिन कालिदास या रवींद्रनाथ का गीत पढ़कर आपको पहली दफा कुछ दिखाई पड़ना शुरू होता है, जो आपको शायद कभी दिखाई नहीं पड़ा था। वह आपकी भी संभावना थी। लेकिन प्रसुप्त थी।
तो कृष्ण के सिद्धांतों की हम बात करेंगे, इस आशा में नहीं कि आप उनको मानकर और सिद्धांतवादी हो जाएं--कृष्ण जैसा गैर-सिद्धांतवादी आदमी नहीं है; इसलिए इस उपद्रव में पड़ना ही नहीं। कृष्ण को समझने का कुल मतलब इतना है कि जब ऐसा महिमा का पूरा खिला हुआ आदमी जगत को देखता है, तो वह क्या कह जाता है, उसकी "वर्डिक्ट' क्या है, क्या कह जाता है इस जगत के बाबत? इस आदमी के चित्त की गहराइयों के बाबत वह क्या खबर दे जाता है? इस आदमी के खिलने के संबंध में वह क्या सूचनाएं दे जाता है? वे सूचनाएं शायद आपके अंतर्गर्भ में पड़ी हुई किन्हीं धाराओं को छू दें; तो ऐसा नहीं है कि फिर आप कृष्णवादी हो जाएंगे, बस ऐसा ही है कि आप अपने होने की यात्रा पर निकल जाएंगे। तभी आप समझ पाएंगे कि यह आदमी, जो स्वधर्म में मर जाने को कहता है, यह आदमी आपके ऊपर सिद्धांत थोपने वाला आदमी नहीं हो सकता है।
तो कल से आप पूछें। जो आप पूछ लेंगे, उसकी मैं बात कर लूंगा। मुझे इसमें सुविधा पड़ती है कि आप पूछ लेते हैं। क्योंकि इसमें मुझे सोच-विचार की झंझट नहीं रह जाती। नहीं तो मुझे सबसे बड़ी दिक्कत यही हो जाती है कि क्या कहूं? ऐसे जब तक आपसे बोलता हूं, तभी तक शब्द और विचार मेरे साथ होते हैं। जब नहीं बोल रहा हूं तब मैं खाली हो जाता हूं। तो मुझे बड़ी कठिनाई होती है, कि कहूं क्या? आप कुछ पूछ लेते हैं, खूंटी बन जाते हैं, मुझे टांगने की सुविधा हो जाती है। तो मुझे बहुत ही कठिन मामला है वह कुछ बोलना। उसके लिए बड़ी मुश्किल होता जा रहा है। इधर मित्रों ने, बहुत मित्रों ने कहा है कि आप कुछ स्वतंत्र रूप से बोल दें। वह मेरे लिए मुश्किल होता जा रहा है। और ज्यादा दिन अब मैं स्वतंत्र रूप से नहीं बोल सकूंगा, उसमें बहुत कठिनाई पड़ती है। क्योंकि मुझे समझ ही नहीं पड़ता है, समझ ही खो गई है। आप पूछ लेते हैं, तो कोई उपाय नहीं रह जाता, मुझे "रिसपांड' करना पड़ता है। आप नहीं पूछते हैं, तो मेरे पास कोई उपाय नहीं कि क्या बोलना है, बोलने को क्या है! अपनी तरफ से मैं अब चुप हूं, आपकी तरफ से ही बोल रहा हूं। इसलिए कल सवाल उठा लेंगे। जो सवाल आप उठा लेंगे, उनकी हम बात कर लेंगे।
ओशो रजनीश
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