श्री कृष्ण स्मृति भाग 120
"भगवान श्री, आसक्ति पर आपने अभी प्रकाश डाला। इसी के साथ गीता में कृष्ण ने दो बातें और कही हैं। कर्म से संन्यास अर्थात संपूर्ण कर्म में कर्तापन का त्याग और निष्काम कर्म अर्थात समत्व बुद्धि से कर्मों का करना। अतएव अनासक्ति, कर्म-संन्यास और निष्काम-कर्म, इन तीनों में क्या रिश्ता या भिन्नता है? इस पर और प्रकाश डालें।'
अनासक्ति योग मूल है। और यह अनासक्ति योग तीसरा कोण है। इस कोण से जीवन के दो कोण निकलेंगे। करते हुए न करना, न करते हुए करना। एक को हम कर्म-संन्यास कहें, एक को हम निष्काम कर्म कहें। निष्काम कर्म का अर्थ है, करते हुए न करना। करते हुए भी करने की वासना जहां नहीं है, करते हुए भी करने का आग्रह जहां नहीं है, करते हुए भी न करना आ जाए तो दुख और पीड़ा जहां नहीं है, करते हुए भी करने का फल न मिले तो कोई विषाद नहीं है, करते हुए भी सब किया हुआ अनकिया हो जाए तो कोई पीड़ा नहीं है, तो यह निष्काम कर्म।
इसको और हम विस्तार से थोड़ा समझेंगे--
न करते हुए भी करते हुए पाना। अब इसे थोड़ा समझना पड़े, यह और भी कठिन है। जिसको संन्यास कहें। न करते हुए करते हुए पाना। मैं कुछ भी नहीं करता, लेकिन आपके द्वार पर भिक्षा तो मांगने आता हूं, और अगर आपने चोरी की है और चोरी का ही अन्न खाते हैं तो मुझे भी चोरी का अन्न देते हैं। अगर व्यक्ति सच में संन्यासी है तो वह कहेगा, मैं भी चोर हूं। अगर सच में संन्यासी नहीं है तो वह कहेगा मुझे क्या मतलब तुम क्या करते हो! मुझे कोई प्रयोजन नहीं। अगर व्यक्ति झूठा संन्यासी है तो वह चोरी की रोटी खाकर चोर नहीं होगा। लेकिन अगर सच्चा संन्यासी है तो वह कहेगा कि नहीं करता हूं मैं चोरी, लेकिन मैं भी भागीदार हूं। लेकिन यह तो मैंने कहा भिक्षा मांगता है तो। ऐसा समझ लें कि भिक्षा भी नहीं मांगता है। ठीक संन्यासी इस पृथ्वी पर है अगर, और वियतनाम में लोग कट रहे हैं, तो वह मानता है कि मैं भी जिम्मेवार हूं। नहीं करता हुआ मैं भी भागीदार हूं। और इस पृथ्वी पर जो चेतना निर्मित हुई है वह मेरे बिना तो नहीं हो सकती है, मैं भी हूं। अगर इस गांव में मैं हूं और इस गांव में हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाए और न मैं हिंदू हूं और न मुसलमान हूं, मैं सिर्फ संन्यासी हूं, तो भी मैं जिम्मेदार हूं। जरूर मैंने भी कुछ ऐसा किया होगा जिसने इस झगड़े को बल दिया। या हो सकता मैंने कुछ भी न किया होगा। मैं खड़ा देखता रहा और मेरा खड़ा देखना भी झगड़े के लिए आधार बन सकता है। संन्यास का अर्थ यह है, न करते हुए भी जानना कि जो भी हो रहा है, चूंकि मैं भी हूं, उससे मैं बच नहीं सकता, उसमें मैं भी भागीदार हूं। होऊंगा ही, क्योंकि मैं एक हिस्सा हूं। और मैं जो भी करूंगा उससे विराट फल आएंगे। अगर हिंदू-मुस्लिम लड़ रहे थे और मैं रास्ते से चुपचाप निकल गया तो कम से कम मैं रोक तो सकता ही था। मैंने नहीं रोका। नहीं रोकना भी मेरा कृत्य है। नहीं रोकने की भी जिम्मेवारी मेरी है।
तो आमतौर से लोग जिसे संन्यास समझते हैं वह संन्यास नहीं है, वह विरक्ति है। कृष्ण जिसे संन्यास समझते हैं वह बहुत कठिन मामला है। वह अनासक्त व्यक्ति की स्थिति है। वह यह कहता है कि जो मैं नहीं कर रहा हूं उसके लिए भी मैं जिम्मेवार हूं क्योंकि मैं भी हूं और चेतना अंततः संयुक्त है, इकट्ठी है।
सागर में आपने लहरें देखी हैं लेकिन शायद ही आपको कभी खयाल आया हो, लहरें आती हुई मालूम पड़ती हैं, आती नहीं। आप कहेंगे, कैसी बात कर रहे हैं, लहरें बराबर आती हैं! लगता है कि एक लहर मील भर दूर से चली आ रही है और आप स्नान भी करते हैं उस लहर में सागर के तट के किनारे बैठकर, तो आप मेरी कैसे मानेंगे कि नहीं आ रही है। लेकिन जो जानते हैं सागर को, वे कहेंगे कि कोई लहर आती नहीं, सिर्फ एक लहर दूसरी लहर को उठाती है। वह मील भर की लहर इस किनारे तक नहीं आती। वह मील भर की लहर जब उठती है तो पड़ोस में गङ्ढा पैदा हो जाता है, उस गङ्ढे की वजह से जहां गङ्ढा खत्म होता है दूसरी लहर पैदा हो जाती है। वह लहर अपने उठने से हजारों लहरों को उठाती है। आती नहीं। उस लहर के हजारों धक्कों का कोई धक्का सिर्फ आता है जब आप सागर के किनारे नहाते हैं, तो वह मील भर से लहर आपके पास नहीं आती है। बस सागर की छाती कंप गई है उसके उठने की वजह से और कंपन आते हैं आपके पास। कंपती हुई जो लहरें आपको दिखाई पड़ती हैं वे इतनी "कंटिन्युअस' हैं कि आप कभी फर्क नहीं कर पाते कि यह लहर सच में आ रही है? लेकिन अगर इस किनारे से आई हुई लहर में कोई बच्चा डूबकर मर जाए, तो क्या मील भर दूर उठी लहर को जिम्मेवार ठहरा सकेंगे--कि तू जिम्मेवार है? वह कहेगी, मैंने डुबाया नहीं, मैं गई नहीं तट पर कभी। मैं सदा यहीं हूं। मील भर का फासला उस बच्चे के डूबने में और मेरे होने में। न, कृष्ण कहते हैं कि अगर वह लहर संन्यासी है, वह कहेगी कि मैंने डुबाया क्योंकि मैं सागर का हिस्सा हूं। उस तट पर गई या नहीं यह सवाल नहीं। उस तट पर जो गया है उसमें भी मेरा हाथ है।
इस जगत में कहीं भी कुछ घट रहा है, संन्यासी उसमें अपने को कर्ता मानता है जो उसने किया ही नहीं। यह बड़ा कठिन है। कर्म करते हुए अपने को अकर्ता मानना इतना कठिन नहीं है। हालांकि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, लेकिन संन्यासी की यह दृष्टि हमारे खयाल में नहीं है। संन्यास की हमारी कुल इतनी दृष्टि है कि जो छोड़कर चला जाता है, जो कहता है, अब मैंने छोड़ ही दिया तो मेरी क्या जिम्मेवारी है? जब मैंने छोड़ ही दिया तो मेरी क्या जिम्मेवारी है! लेकिन यह जगत पूरा का पूरा सागर की छाती पर उठी हुई लहरों जैसा है। इसमें कोई लहर यह नहीं कह सकती कि मैं जिम्मेवार नहीं हूं जो "पैटर्न' बन रहा है उसमें। जिंदगी बड़ी जटिल है, उसमें भी चेतना के सागर में लहरें हैं। मैं एक शब्द बोलता हूं, मैं कल नहीं रहूंगा लेकिन उस शब्द के परिणाम अनंत काल तक जगत में आते रहेंगे। कौन होगा जिम्मेवार? मैं नहीं बोलता हूं, चुप खड़ा रह जाता हूं, लेकिन मेरी चुप्पी के परिणाम इस जगत में अनंत काल तक प्रभावी होते रहेंगे। कौन होगा जिम्मेवार? मैं नहीं रहूंगा! यह हो सकता है कि जिस लहर के धक्के से यह किनारे की लहर उठी वह अब न हो, और बच्चा डूबकर मरा तब वह लहर कहेगी कि न तो मैं किनारे गई, और जब बच्चा डूबकर मरा तब तो मैं थी ही नहीं। तो उस लहर को आप किसी अदालत में जिम्मेवार न ठहरा सकेंगे, कोई मुकदमा न चला सकेंगे, लेकिन कृष्ण की अदालत में वह लहर भी मुकदमे में फंस जाएगी। कृष्ण कहेंगे कि तेरा होना या न होना, दोनों अर्थों में इस विराट जाल को पैदा करता है। इसमें तू भागीदार है ही, इसलिए न करते हुए भी जानना कि कर रही है। यह एक पहलू है, इसका अर्थ संन्यास है। ऐसा आदमी संन्यासी नहीं है जो कहता है कि हमारा क्या जुम्मा?
अब हिंदुस्तान में संन्यासी थे हजारों-लाखों की संख्या में। यह मुल्क गुलाम था। वे संन्यासी कहते, हमें क्या मतलब? इस मुल्क की गुलामी का हमें क्या मतलब! हमें तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता, हम तो संन्यासी हैं। लेकिन उन लाखों संन्यासियों का यह भाव भी इस मुल्क को गुलाम बनाने में सहयोगी है। जिम्मेवारी उनकी है, वे भाग नहीं सकते। संन्यासी किसी भी जिम्मेवारी से भागेंगे नहीं। संन्यासी का मतलब ही यह है कि जो दूसरे की जिम्मेवारी है वह भी अपनी है। वह जो दूसरे का पाप है, वह भी अपना है। वह जो दूसरे का पुण्य है, वह भी अपना है। क्योंकि हम अलग-अलग कहां हैं? अगर दूसरा नहीं है तो फिर मैं न करते हुए भी करता हूं।
लेकिन बड़े मजे की बात है। अगर न करते हुए कोई कर्ता हो जाए तो अनासक्त हो जाएगा। क्योंकि अब तो अपना कर्म और पराया कर्म का कोई फासला नहीं रहा। अब मैं किसको छोड़ूं और किससे भागूं? अगर मैं चोरी न करूं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। जमीन पर चोरी चलती रहेगी। मैं चोरी करूं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। तो अब इसको मैं अपना मानूं, इसका कोई अर्थ नहीं रहा है। अगर सभी कुछ का मैं भागीदार हूं, सभी पाप मेरे हैं, सभी युद्ध मेरे, सभी शांतियां मेरी, तो अब, मैं किसको छोड़ूं और किसको पकड़ूं! अब पकड़ने न पकड़ने का कोई सवाल न रहा। सभी हाथ मेरे हैं अगर, तो इन दो हाथों को छोड़कर अगर भाग भी जाऊंगा तो क्या फर्क पड़ता है? और सभी आंखें अगर मेरी हैं तो अगर मैंने अपनी दो आंखें फोड़ भी लीं, तो क्या फर्क पड़ता है? और अगर सभी घर मेरे हैं तो मैं एक घर छोड़कर जंगल चला गया तो क्या फर्क पड़ता है?
संन्यास का अर्थ है कि यह जो कर्म का विराट "पैटर्न' है, यह जो जाल है, इसमें हम भागीदार हैं, हम इसके हिस्से हैं। इसलिए न करते हुए जानना कि मैं कर रहा हूं। ठीक दूसरा पहलू कृष्ण कहते हैं, करते हुए जानना कि मैं नहीं कर रहा हूं। अब तो वह भी कठिन मालूम पड़ेगा। इस बात को समझने के बाद वह और भी कठिन हो जाएगा। ऐसे साधारणतः वह सरल मालूम पड़ता है। आदमी कहता है कि हम अभिनेता बनकर कर सकते हैं। लेकिन, बड़ी है कठिन बात वह भी। सच तो यह है कि जो अभिनेता होता है वह भी कई बार चूक जाता है और कर्ता हो जाता है। अभिनय करते वक्त भी पच्चीस दफे चूक जाता है और कर्ता हो जाता है। अभिनय जो आदमी करता है वह जब अपने अभिनय में पूरा लीन होता है, तब वह यह भूल जाता है कि अभिनय कर रहा हूं। तब तो वह वही हो जाता है जो वह कर रहा है। तब वह आविष्ट हो जाता है, अध्यास हो जाता है, तब वह वही हो जाता है जो वह कर रहा है।
इस अध्यास को थोड़ा समझना जरूरी है अभिनेता के। क्योंकि जब अभिनेता को अध्यास पकड़ जाता हो, भ्रम पकड़ जाता है कि मैं यही हो गया, तो हम जो जी रहे हैं हम फिर अभिनेता कैसे हो पाएंगे। राम की सीता खोए तो राम अभिनेता कैसे हो पाएंगे? अगर रामलीला में भी सीता खोती हो और रामलीला में बने राम के भी असली आंसू आ जाते हों, आ जाते हैं, कई बार। क्यों न आ जाते होंगे? जब देखने वालों के आ जाते हैं, जो रामलीला देख रहे हैं, जो कि राम भी नहीं बने हैं, जब वे रोने लगते हैं, तो जो सच में राम बना है वहां उसकी स्थिति तो और जरा गहरे में है। वह दर्शक तो नहीं है। कर्ता तो है, अभिनेता ही सही, लेकिन कर रहा है। अगर उसकी सीता खो जाती है और वह रोने लगता हो और वे आंसू थोड़ी देर के लिए असली आंसू हो जाते हों तो हैरानी नहीं है। हो जाता है। अभिनेता भी भूल जाता है उन क्षणों में कि मैं अभिनय कर रहा हूं। तो हम तो जीवन में हैं। वहां यह जानना कि हम अभिनय कर रहे हैं, बड़ी कठिन है, बड़ी "आरडुअस' बात है। लेकिन, जो हम कर रहे हैं, अगर उसे हम ठीक से पहचान लें, तो तत्काल दिखाई पड़ने लगेगा कि यह हम अभिनय कर रहे हैं! रास्ते पर आप गुजर रहे हैं और किसी ने कहा, कहिये, कैसे हैं, और आप कहते हैं, बिलकुल ठीक हैं! और खयाल में भी नहीं आता कि क्या आप कह रहे हैं। एक क्षण वहीं रुक जाएं और गौर से देखें, बिलकुल ठीक हैं? तो तत्काल पता चलेगा कि जो आपने कहा है, वह अभिनय-वचन था। एक आदमी मिलता है और उसको आप नमस्कार करते हैं और कहते हैं कि देखकर आपको बड़ा आनंद हुआ। रुक जाएं एक क्षण, पीछे लौटकर देखें, आनंद हुआ है? तब दिखाई पड़ जाएगा, अभिनय कर रहे हैं।
जिंदगी के क्षणों और क्षणों में कभी-कभी जब आप कर्ता होते हैं, एक क्षण रुक जाएं और लौटकर पीछे देखें कि जो आप कर रहे हैं, वह है? किसी से कहते हैं कि मेरे प्रेम का तेरे लिए कोई अंत नहीं, तेरे बिना मैं जी न सकूंगा। लेकिन कितने प्रेमी मरे हैं? लौटकर जरा पीछे देखें: नहीं जी सकेंगे? और अभिनय साफ हो जाएगा। जिंदगी में चारों तरफ मौके खोज लें, रुक जाएं, एक क्षण को पीछे देखें, और देखें कि जो आप कह रहे हैं, कर रहे हैं, वह क्या है? अभिनय आप तभी समझ पाएंगे जब अभिनय दिखाई पड़ने लगें।
मैं नसरुद्दीन की कहानी निरंतर कहता रहता हूं। एक सम्राट की पत्नी से उसका प्रेम है। रात चार बजे वह विदा हो जाता है और अब दूसरे गांव जा रहा है। तो वह उससे कहता है कि तेरे बिना मैं कैसे रह सकूंगा! एक-एक पल बिताना मुश्किल हो जाएगा। तुझसे ज्यादा सुंदर, तुझसे ज्यादा प्रेमी कोई भी नहीं है। वह स्त्री उसकी ये बातें सुनकर रोने लगी है। नसरुद्दीन ने लौटकर देखा, उसने कहा कि माफ कर, ये बातें मैंने दूसरी स्त्रियों से भी कही हैं। ये बातें मैंने दूसरी स्त्रियों से भी कही हैं। उनसे भी मैंने यही कहा है कि तेरे बिना पल भर न रह सकूंगा, लेकिन मैं हूं। और मैं रहूंगा, क्योंकि कल मुझे फिर किसी स्त्री से कहने का मौका आ सकता है। और यह तो मैंने सभी स्त्रियों से कहा है कि तुमसे ज्यादा सुंदर कोई भी नहीं है। वह स्त्री बहुत नाराज हो जाती है, वह बहुत दुखी हो जाती है। नसरुद्दीन कहता है, मैं तो सिर्फ मजाक करता हूं। वह फिर खुश हो जाती है।
अब यह जो आदमी है नसरुद्दीन, यह आदमी समझ सकता है कि जिंदगी अभिनय है। यह आदमी पहचान सकता है कि जिंदगी अभिनय है। लेकिन यह स्त्री को पहचानना बड़ा मुश्किल पड़ जाएगा कि जिंदगी अभिनय है। ऐसा नहीं है कि अभिनय होने से जिंदगी कुछ खराब हो जाती है। सच तो यह है कि अभिनय होने से जिंदगी बड़ी कुशल हो जाती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, योग तो कर्म की कुशलता है। असल में जब जिंदगी अभिनय हो जाती है, तो दंश चला जाता है, पीड़ा चली जाती है, कांटा चला जाता है, फूल ही रह जाता है, जब अभिनय ही करना है तो क्रोध का किसलिए करना, पागल हैं? जब अभिनय ही करना है तो प्रेम का ही किया जा सकता है। क्रोध का अभिनय करने का क्या प्रयोजन है? जब अभिनय ही करना है तो फिर क्रोध का सिर्फ पागल अभिनय करेंगे। जब अभिनय ही करना है तो प्रेम का ही हो सकता है। जब सपना ही देखना है तो दीनता-दरिद्रता का क्यों देखना, सम्राट होने का देखा जा सकता है।
अपने कृत्यों को झांक-झांक कर देखने से धीरे-धीरे पता चलता है कि मैं अभिनय कर रहा हूं। पिता का अभिनय कर रहा हूं, बेटे का अभिनय कर रहा हूं, मां का अभिनय कर रहा हूं, पत्नी का अभिनय कर रहा हूं, पति का अभिनय कर रहा हूं, प्रेमी का अभिनय कर रहा हूं, मित्र का अभिनय कर रहा हूं। यह दिखाई पड़ना चाहिए। इसको आप एक-एक कृत्य को "एटामिकली', एक-एक को अणु में पकड़ लें, और देखें कि क्या हो रहा है। और आप बहुत हंसेंगे। और हो सकता है, बाहर आंसू गिर रहे हों और भीतर हंसी आनी शुरू हो जाए कि यह मैं क्या कर रहा हूं! हो सकता है, बाहर कुछ और हो रहा हो, भीतर कुछ और होना शुरू हो जाए। और तत्काल आप इस स्थिति को समझ पाने में समर्थ होते चले जाएंगे। जैसे-जैसे यह साफ होगा, वैसे-वैसे जिंदगी अभिनय हो जाएगी।
एक झेन फकीर मर रहा है। मरते वक्त उसने मित्रों से पूछा, कि मुझे जरा कुछ बताओ, क्योंकि मरे तो बहुत लोग हैं, मैं भी मरना चाहता हूं, लेकिन कोई नये ढंग से मरें! कब तक पुराने ढंग से मरते रहेंगे? उन्होंने कहा, आप कैसी बातें कर रहे हैं, मरना कोई मजाक है! उस फकीर ने कहा कि तुमने कभी किसी आदमी को चलते-चलते मरते हुए सुना है? चल रहा हो, और मर गया हो, लोगों ने कहा, ऐसा तो सुना नहीं! फिर भी एक बूढ़े ने कहा कि ऐसी कहानी मैंने पढ़ी है कि एक दफा एक फकीर चलता हुआ मर गया था! उस मरने वाले फकीर ने कहा कि फकीर ही चलते हुए मर सकता है! मर गया होगा! छोड़ो इस ढंग को। तुमने कभी किसी को खड़े-खड़े मरते हुए सुना है? किसी ने कहा कि हां, मुझे ऐसा पता है कि एक आदमी एक बार खड़े-खड़े मर गया था। तो उस फकीर ने कहा कि जो ढंग से जिंदा रहा हो, वह ढंग से मरता है। मर सकता है। अच्छा तुमने कभी यह सुना है कि कोई आदमी शीर्षासन करते हुए मर गया हो? उन्होंने कहा, न सुना, न सोच सकते। शीर्षासन करके कैसे कोई मरेगा! तो उस फकीर ने कहा, फिर यह ढंग अपने लिए ठीक रहेगा। वह शीर्षासन लगाकर खड़ा हो गया और मर गया।
अब बड़ी मुसीबत हुई उस "मॉनस्ट्री' में। उस आश्रम में बड़ी कठिनाई पड़ गई, क्योंकि इसको उतारें कैसे! बड़े डरने लगे। एक तो यह आदमी खतरनाक मालूम पड़ा कि जो शीर्षासन लगाकर कहे कि अच्छा चलो, शीर्षासन लगाकर मर जाते हैं! यह पता नहीं मरा है कि नहीं मरा? या क्या हो गया है? सब तरफ से जांच-पड़ताल की, पाया कि न श्वास का कोई पता है, न धड़कन का कोई पता है, वह मर ही गया। लेकिन यह शीर्षासन कर रहा हो मुर्दा, तो कौन उतारे! और पीछे कोई झंझट न पड़े। और यह मुर्दा कोई साधारण मालूम होता नहीं। तो वे सब, जिन्होंने कहा था तुम्हारे बिना हम एक क्षण न रह सकेंगे, वे भी उसको उतारने को तैयार नहीं थे। तब किसी ने कहा कि इसकी बहन भी साध्वी है और वह पास की एक "मॉनेस्ट्री' में रहती है। वह इसकी बड़ी बहन है। और जब भी यह कोई उपद्रव करता था तो उसको लोग बुलाकर लाते थे, इसको ठीक करवाने के लिए। तो अब हम कुछ नहीं समझ सकते, उसको बुला लिया जाए। वह बड़ी बहन कोई नब्बे वर्ष की बूढ़ी औरत, वह आई। उसने अपना डंडा जोर से बजाया और कहा कि जिंदगी भर की मजाक मरते वक्त बैठ गया और उसने कहा कि बाई, नाराज मत हो, हम ढंग से मरे जाते हैं। हमें क्या फर्क पड़ता है! फिर वह आदमी बैठ गया और मर गया। और उसकी बहने ने लौटकर भी नहीं देखा, वह अपना डंडा लेकर वापिस चली गई। उसने कहा कि यह क्या बातचीत कर रखी है कि मरने में तो कम-से-कम परंपरा निभाओ! वह आदमी बैठकर फिर लेट गया और मर गया।
अब यह जो आदमी है, अगर मृत्यु के क्षण में अभिनय कर सकता है, तो इसकी पूरी जिंदगी एक अभिनेता की जिंदगी है। इसको मैं कहूंगा यह निष्काम कर्म है। तब सब खेल हो जाता है। तब जिंदगी एक खेल है। तब हम सारी चीजों को खेल की तरह ले सकते हैं। लेकिन हम पहचानेंगे अपने भीतर के अभिनेता को अपने कृत्यों में, तभी यह हो पाएगा। आप अभिनय कर न सकेंगे। आप अभिनय कर ही रहे हैं, इस सत्य को पहचानना है। तो यह नहीं कहते हैं, कृष्ण कि तुम अभिनय करो। अगर कोई अभिनय करेगा तो अभिनय करने में कर्ता बन जाएगा और गंभीर हो जाएगा, क्योंकि कर्ता तो रहेगा ही वह, अभिनय का कर्ता हो जाएगा। कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि तुम अभिनय करो। कृष्ण यह कह रहे हैं, तुम जो करते हो उसे मैं जानता हूं कि वह अभिनय है। तुम भी जानो। तुम भी पहचानो। तुम भी खोजो। और जिस दिन दिख जाए कि वह अभिनय है, उस दिन तुम करते हुए अकर्ता हो जाओगे। उस दिन ढंग की बात है।
फिर जो दो हिस्से उन्होंने बांट दिए, निष्कामकर्मी का और संन्यास का, वह ढंग की बात है। वह किसकी क्या पसंद है, इसकी बात है। कोई करते हुए न करने वाला हो जाएगा, कोई न करने वाला होते हुए करने वाला हो जाएगा। वह दो तरह के लोग हैं जगत में। वह हमारे "टाइप' की बात है। जैसे मैं मानता हूं कि पुरुष के लिए आसान पड़ेगा कि वह करते हुए न करने वाला हो जाए। स्त्री के लिए आसान पड़ेगा कि वह न करने वाली होती हुई करने वाली हो जाए। उसके "टाइप' के फर्क हैं। स्त्री का जो चित्त है, वह "पैसिव' है। पुरुष का जो चित्त है, वह "एक्टिव' है। पुरुष का जो चित्त है, वह करने वाले का है। स्त्री का जो चित्त है, वह न करने वाले का है। स्त्री को अगर कुछ करना भी हो, तो वह न करने के ढंग से करती है। पुरुष को कुछ न भी करना हो, तो वह करने वाले की तरह हमला कर देता है। मोटा विभाजन कर रहा हूं। मोटा इसलिए कहता हूं कि पुरुषों में कोई स्त्रैण-चित्त लोग हैं और स्त्रियों में कोई पुरुष-चित्त स्त्रियां हैं। स्त्री कुछ करना भी चाहे, तो उसकी सारी व्यवस्था न-करने की होगी। अगर वह किसी को प्रेम भी करती है। सब तरफ से छिपायेगी, इस प्रेम को वह न-करना बनायेगी। और पुरुष अगर प्रेम न भी करता हो, तो भी वह इतना उपाय करके प्रगट करेगा कि चारों तरफ से घेर लेगा और प्रेम की वर्षा कर देगा कि मैं प्रेम करता हूं। पुरुष और स्त्री-चित्त के कारण ही--और दो ही तरह के चित्त हैं जगत में, स्त्रियां और पुरुष मैं नहीं कह रहा हूं, स्त्री-चित्त और पुरुष-चित्त--ऐसी स्त्रियां भी हैं जो हमला करती हैं प्रेम में और ऐसे पुरुष भी हैं जो प्रतीक्षा करते हैं प्रेम में। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। ये दो चित्त हैं। "फीमेल माइंड--फेमिनिन माइंड' और "मेल माइंड'। कृष्ण ने इन दो चित्तों को ध्यान में रखकर ही दो हिस्से कर दिए।
संन्यास का तो मतलब एक ही है, हिस्से दो हैं। अगर स्त्रैण-चित्त का प्रतीक्षारत व्यक्तित्व, समर्पण करने वाला, खोने वाला, "पैसिव माइंड' अगर इस दिशा में जाएगा, तो वह कहेगा कि न-करता हुआ। न करना ही उसकी व्यवस्था होगी, और न-करने के बीच अपने को कर्ता जानना उसका अनुभव होगा। इसलिए स्त्री अगर, कभी "इनशिएटिव' नहीं लेती--किसी चीज का, कोई पहल नहीं करती। इसलिए पुरुष कई बार धोखे में भी पड़ता है। लेकिन स्त्री बहुत भलीभांति जानती है कि पहल उसने ली है। लेकिन उसकी पहल प्रतीक्षा वाली पहल है। वह एक शब्द न कहेगी प्रेम का। और अगर पुरुष उससे प्रेम के शब्द न कहे, तो वह दुखी हो जाएगी, हालांकि उसने एक शब्द नहीं कहा है। वह दुखी हो जाएगी, क्योंकि उसके न कहने में भी उसकी पहल तो जारी है--बाकी उसकी पहल प्रतीक्षा करने वाली है। अगर पुरुष प्रेम के शब्द न कहे और सीधा प्रेम करने लगे, तो किसी स्त्री को कभी पसंद नहीं आएगा। क्योंकि उसका प्रेम वह स्त्री पहचान ही नहीं पाएगी, जब तक कि वह आक्रामक न हो जाए। जब तक कि पुरुष का प्रेम आक्रमण न करेगा, तब तक स्त्री मान ही नहीं सकेगी कि वह प्रेम कर रहा है। इसलिए बहुत शांत पुरुष, जिसका प्रेम आक्रामक नहीं है, स्त्री को कभी तृप्ति नहीं दे पाता है। और ऐसा व्यक्ति भी, जो उतना कीमती भी नहीं है, उतना अर्थपूर्ण भी नहीं है, लेकिन अगर उसका प्रेम आक्रामक बन जाए तो वह स्त्री के लिए बड़ा रस दे पाता है, क्योंकि उसका आक्रमण बताता है कि वह कितना प्रेम करता है! उसका आक्रामक होना बताता है कि वह कितना चाहता है! स्त्री अगर आक्रामक हो जाए तो किसी पुरुष को कभी तृप्ति नहीं दे पाती, क्योंकि तब वह पुरुष जैसी हो जाती है।
ये जो चित्त के दो विभाजन हैं, इस विभाजन के कारण दो हिस्से हैं--करते हुए न करता हुआ जानना, न करते हुए करता हुआ जानना, ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
ओशो रजनीश
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