श्री कृष्ण स्मृति भाग 121

 "भगवान श्री, एक तकलीफ और पैदा हो गई है। जैसे आज "प्राइवेट सेक्टर' और "पब्लिक सेक्टर', दो में इतना अंतर है कि अगर हमने "प्राइवेट सेक्टर' को नष्ट कर दिया तो "इनशिएटिव' खत्म हो जाता है। और "इनशिएटिव' खत्म हो जाने से गति रुक जाती है। तो अनासक्ति में उतर जाने पर या निष्काम में उतर जाने पर या कर्म-संन्यास में उतर जाने पर ऐसा लगता है कि जो पहल है, जो स्फूर्ति है, जो "इनशिएटिव' है, वह सारी चीज "कन्वर्ट' हो जाती है निष्क्रियता में। इसकी संभावना तो है।'


ऐसा हो सकता है, अगर उलटा व्यक्तित्व हो। जैसा मैंने कहा, दो तरह के व्यक्तित्व हैं। मैंने कहा, एक व्यक्तित्व जिसको स्त्रैण व्यक्तित्व कहें, जो कि न करते हुए करने वाले का है। अगर स्त्रैण व्यक्तित्व संन्यासी हो जाए, तो निष्क्रियता आ जाएगी। क्योंकि वह उस व्यक्तित्व का स्वभाव नहीं है। दूसरा, जैसा मैंने कहा पुरुष व्यक्तित्व, जो कि करने वाले में ही न करने वाले को जान सकता है; करे, करेगा तो ही, करना तो उसका जीवन ही होगा, अब इस करने के भीतर वह जान सकता है कि मैं अकर्ता हूं। यह जाना जा सकता है। अब अगर ऐसा व्यक्ति, न करने की दुनिया में उतर जाए और फिर जानना चाहे कि मैं कर्ता हूं तो निष्क्रिय हो जाएगा। निष्क्रियता फलित होती है विपरीत व्यक्तित्व के कारण। इसलिए बहुत साफ-साफ चुनाव जरूरी है और प्रत्येक व्यक्ति को समझना जरूरी है कि उसका "टाइप' क्या है। अपने से उलटे को चुनने से कठिनाइयां पैदा होती हैं। अपने से उलटे को चुनकर सिर्फ एक ही फल हो सकता है कि हमारा समस्त जीवन क्षीण हो जाए। उलटे को भर चुनने की भूल न हो, तो कर्म फैलेगा, बड़ा होगा। तेजी, निखार आएगा, प्रखरता आएगी, निखर जाएगा कर्म। क्योंकि पुरुष-चित्त का कर्म अगर कहीं से भी बाधा पाता है, तो उसके कर्ता होने से बाधा पाता है। अगर कर्ता विदा हो जाए और सिर्फ कर्म ही रह जाए, तो कर्म की गति का अनुमान ही लगाना मुश्किल है। वह पूर्ण गति को उपलब्ध हो जाएगा। क्योंकि कर्ता होने में जितनी शक्ति खर्च होती थी वह भी अब कर्म को मिलेगी और कर्म पूर्ण हो जाएगा, "टोटल ऐक्ट' पैदा हो जाएगा। स्त्री को कर्म करने में जितनी कठिनाई पड़ती है, वह अगर उससे मुक्ति मिल जाए उसे, और वह अपने अकर्म में पूरी राजी हो जाए, तो उसके अकर्म से, उसके न करने से विराट कर्म का जन्म होगा। क्योंकि सारी शक्ति उसको उपलब्ध हो जाएगी। उसके ढंग में फर्क होंगे। लेकिन हम अक्सर भूल में पड़ जाते हैं। हम अक्सर अपने से विपरीत व्यक्तित्व को चुन लेते हैं। उसका भी कारण आप समझ लें।

हमारी पूरी जिंदगी में आकर्षण विपरीत का होता है--"दि अपोजिट' का। पूरी जिंदगी में। पुरुष स्त्री को पसंद करता है, स्त्री पुरुष को पसंद करती है। हमारी पूरी जिंदगी जैसी है, उसमें विपरीत आकर्षक होता है। अध्यात्म में यही उपद्रव बन जाता है। उसमें भी हम विपरीत को चुन लेते हैं। अध्यात्म विपरीत की यात्रा नहीं है, अध्यात्म स्वभाव की यात्रा है। अध्यात्म उसका पाना नहीं है, जो आकर्षक है। अध्यात्म उसका पाना है, जो मैं हूं ही। लेकिन जीवन की यात्रा में विपरीत आकर्षक है।

मैंने एक कहानी सुनी है कि एक द्वीप पर--एक छोटे-से द्वीप पर सागर में, अनजान किसी कोने में लोग एक बार बिलकुल निष्क्रिय हो गए और तामसी हो गए। उन्होंने सब काम-धंदा बंद कर दिया। जो मिल जाता, खा-पी लेते और पड़ रहते, सो जाते। उस द्वीप के ऋषि बड़े चिंतित हुए, उन्होंने कहा कि अब क्या करें! लोग सुनते ही नहीं--क्योंकि तामसी हो गए हो, यह भी तो सुनने कोई नहीं आता था। ऋषि बहुत डुंडी भी पीटते तो पीटकर आ जाते, लेकिन कोई आता नहीं सुनने उनको। आलसी हो गए हो, यह सुनने तो वही आएगा न जो थोड़ा बहुत आलसी नहीं है। तो ऋषि बहुत परेशान हुए। कोई रास्ता न सूझे। गांव धीरे-धीरे मरने लगा, सिकुड़ने लगा। तब उन्होंने कहा कि अब बड़ी कठिनाई हो गई! क्या किया जाए, क्या न किया जाए!

तो गांव के एक बहुत वृद्ध आदमी से जाकर उन्होंने सलाह ली, तो उसने कहा, अब एक ही उपाय बचा है कि पास में एक द्वीप है, सब स्त्रियों को उस पर भेज दो, सब पुरुषों को इस पर रहने दो। पर उन्होंने कहा, इससे क्या होगा? उसने कहा, वे जल्दी नाव बनाने में लग जाएंगे। वे स्त्रियां भी जल्दी तैयारी करने में लग जाएंगी। इनको बांटो। अब उनका पास-पास होना ठीक नहीं। विपरीत को विपरीत ही खड़ा कर दो, फिर जल्दी सक्रियता गूंजने लगेगी।

जवानी में आदमी सक्रिय इसीलिए होता है, बुढ़ापे में निष्क्रिय इसीलिए हो जाता है। और कोई कारण नहीं है। जवानी में पूरे पुरजोश उसमें स्त्रीत्व और पुरुषत्व होता है। वे दोनों नाव बनाने में लग जाते हैं और यात्रायें करने में लग जाते हैं। बुढ़ापा आते-आते सब थक जाता है। स्त्री पुरुष को जान लेती है, पुरुष स्त्री को जान लेता है, विपरीतता कम हो जाती है। वह जो "अपोजिट' का आकर्षण है, परिचित होने से विदा हो जाता है, बुढ़ापे में आदमी शिथिल हो जाता है।

जिंदगी के सहज नियम में विपरीत आकर्षक है, और अध्यात्म के सहज नियम में स्वभाव, विपरीत नहीं। इसीलिए भूल होती है। इसलिए अध्यात्म जिन-जिन मुल्कों में फैलता है वे निष्क्रिय हो जाते हैं। यह मुल्क हमारा निष्क्रिय हुआ। और उसका कुल कारण इतना है कि विपरीत का आकर्षण वहां भी खींचकर ले गए। तो वहां जो पुरुषगत साधना जिसे चुननी चाहिए थी उसने स्त्रीगत साधना चुन ली और जिसे स्त्रीगत साधना चुननी चाहिए थी उसने पुरुषगत साधना चुन ली। वे दोनों मुश्किल में पड़ गए। पूरा मुल्क निष्क्रिय हो गया। जिसको मीरा होना चाहिए था वे महावीर हो गए, जिसको महावीर होना चाहिए था वह झांझ-मंजीरा लेकर मीरा हो गया, वह दिक्कत हो गई। दिक्कत हो ही जाने वाली है।

इसलिए भविष्य के अध्यात्म की जो सबसे बड़ी वैज्ञानिक प्रक्रिया मेरे खयाल में आती है, वह यह है कि हम साफ इस सूत्र को करें कि "बायोलाजी' का जो नियम है वह "स्प्रीचुअलिटी' का नियम नहीं है। जीवनशास्त्र जिस आधार से चलता है--वह विपरीत के आकर्षण से चलता है, अध्यात्म विपरीत का आकर्षण नहीं है, स्वभाव में निमज्जन है। वह दूसरे तक पहुंचना नहीं है, अपने तक पहुंचना है। लेकिन जिंदगी भर का अनुभव बाधा डालता है।

मैंने सुना है कि जब पहली दफे बिजली आई, तो फ्रायड के घर एक आदमी मेहमान हुआ। और उसने कभी बिजली नहीं देखी थी। उसने तो हमेशा लालटेन देखी थी, दीया देखा था, वह मेहमान हुआ, उसको सुलाकर फ्रायड कमरे के बाहर चला गया। वह बड़ी मुश्किल में पड़ा, प्रकाश में नींद न आए। तो उसने सीढ़ियां लगाकर, किसी तरह खड़े होकर फूंकने की कोशिश की, लेकिन फूंकने से बिजली बुझे न। अब वह आदमी भी क्या करे, उसकी कोई गलती नहीं! उसका एक ही अनुभव था कि दीये फूंकने से बुझ जाते हैं। उसकी परेशानी का अंत नहीं है। सामने बटन लगी है, लेकिन बटन से कोई संबंध नहीं है। उसके चित्त में बटन कहीं दिखाई ही नहीं पड़ती। आखिर अनुभव ही तो हमें दिखलाता है। उसको बटन भर नहीं दिखाई पड़ती, वह सारे कमरे में सब तरह की खोज करता है कि माजरा क्या है! चढ़कर बल्ब को सब तरफ से देखता है कि कहां से द्वार है इसमें जिसमें से फूंक मार दूं। कहीं कोई फूंक का द्वार नहीं दिखता। नींद आती नहीं, करवट बदलता है, फिर खड़ा होता है, लेकिन पुराने अनुभव से ही जीता है। डर लगता है कि जाकर कहूं तो लोग कहेंगे, कैसे नासमझ, तुम्हें दीया बुझाना भी नहीं आता? तो रात जाता भी नहीं, पूछने में भी भयभीत है। सुबह जब उठता है, और फ्रायड जब कमरे में आता है तो देखता है, बिजली जली है। वह पूछता है, क्या बिजली बुझाई नहीं? उसने कहा, बुझाई तो बहुत, बुझी नहीं। अब तुमने पूछ ही लिया तो अब निवेदन कर दूं। रात भर इसी को बुझाने में गया। क्योंकि इसके जलते नींद नहीं आती और यह है कि बुझती नहीं। फ्रायड ने कहा, पागल हुए हो। यह रही बटन! लेकिन उस आदमी के अनुभव में बटन का कोई सवाल नहीं उठता था। उस आदमी को हम दोषी नहीं ठहरा सकते।

हमारे जिंदगी भर का अनुभव विपरीत के आकर्षण का अनुभव है। इसलिए जब हम अध्यात्म के जगत में पहुंचते हैं, जहां कि यात्रा बिलकुल बदल जाती है, हम उसी अनुभव से दीये फूंकते चले जाते हैं, बटन का हमें खयाल नहीं होता। यह भूल बड़ी लंबी है और पुरानी है। इसलिए जिस मुल्क में अध्यात्म प्रभावी हो जाता है वह निष्क्रिय हो जाता है। और जिस मुल्क में "सेक्स' प्रभावी होता है वह सक्रिय होता है। इसलिए दुनिया की सभी सक्रिय सभ्यतायें कामुक सभ्यतायें होती हैं। और दुनिया की सभी निष्क्रिय सभ्यतायें आध्यात्मिक होती हैं। ऐसा होना आवश्यक नहीं है। ऐसा अब तक हुआ है।

इसलिए जिस मुल्क में काम मुक्त हो जाएगा, "फ्री सेक्स' होगा, उस मुल्क की "एक्टिविटी' एकदम बढ़ जाएगी। उसकी "एक्टिविटी' का हिसाब नहीं रहेगा! अगर हम प्रकृति में चारों तरफ नजर डालें तो "एक्टिविटी' "सेक्स' से ही पैदा होती है। वसंत में फूल खिलने लगते हैं, और किसी कारण से नहीं; पक्षी गीत गाने लगते हैं, और किसी कारण से नहीं; पक्षी घोंसले बनाने लगते हैं, किसी और कारण से नहीं; सबके पीछे काम और "सेक्स' की ऊर्जा है। पक्षी वह घोंसला बना रहा है जो उसने कभी बनाया नहीं। उस अंडे को रखने की तैयारी कर रही मादा जो उसने कभी रखा नहीं। लेकिन सब तरफ गुनगुन हो गई है, सब तरफ गीत चल रहा है, सब तरफ भारी क्रिया पैदा हो गई है, वह "बायोलाजिकल' "एक्टिविटी' है। आदमी भी अभी एक ही तरह की एक्टिविटी जानता है, "बायोलाजिकल'। इसलिए जिन मुल्कों में "सेक्स' स्वतंत्र है, उन मुल्कों में मकान आकाश को छूने लगेंगे। वह घोंसला बनाने का ही विस्तार है। कोई और बड़ी बात नहीं है। जिन मुल्कों में मुक्त होगा काम, उन मुल्कों में नाच, रंग, गीत पैदा हो जाएंगे; रंग-बिरंगे कपड़े फैल जाएंगे। वह वही पक्षियों के गीत और मोर के पंख, उन्हीं का विस्तार है। कोई बहुत अंतर नहीं है।

जिन मुल्कों में हम कहेंगे कि हम जीवशास्त्र के विपरीत चलते हैं, और नियम जीवशास्त्र का ही मानेंगे--विपरीत से आकर्षित होंगे--वहां सब उदास, शून्य हो जाएगा। वहां मकान झोंपड़े रह जाएंगे, जमीन से लग जाएंगे; वहां सब गतिविधि क्षीण हो जाएगी, वहां कोई गीत नहीं गाएगा, गीत गाता हुआ आदमी अपराधी मालूम पड़ेगा; वहां रंग-बिरंगे कपड़े खो जाएंगे, वहां रंग-रौनक, सौंदर्य खो जाएगा, वहां सब उदास, दीन-हीन और क्षीण हो जाता है।

अब मेरा अपना मानना यह है कि दोनों के अपने नियम हैं, और ठीक पूरी संस्कृति दोनों नियमों पर खड़ी होती है। ठीक संस्कृति काम-मुक्त होगी। काम में आनंद लेगी, काम में उल्लसित होगी, तो क्रिया पैदा होगी। विराट क्रिया का जाल फैलेगा। और ठीक अध्यात्म, ठीक "टाइप' के चुनाव से अगर होगा, तो आध्यात्मिक क्रिया का जाल फैलेगा। कृष्ण ठीक अपने "टाइप' में हैं। बुद्ध अपने "टाइप' में हैं, महावीर अपने "टाइप' में हैं। इसलिए कृष्ण एक तरह की क्रिया करते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कि बुद्ध कोई क्रिया नहीं करते। बुद्ध का जीवन भी क्रिया का विराट जाल है। महावीर भी एक क्षण शांत नहीं बैठे हैं। चालीस वर्ष सतत एक गांव से दूसरे गांव, एक गांव से दूसरे गांव भाग रहे हैं, भाग रहे हैं। अपना ढंग है उनकी क्रिया का। युद्ध पर लड़ने वह नहीं जाते हैं, लेकिन किसी और बड़े विराट युद्ध में वह संलग्न हैं; किसी चीज को तोड़ने, मिटाने, बनाने में संलग्न हैं। बुद्ध बांसुरी नहीं बजाते, लेकिन बुद्ध की वाणी में किसी और बड़ी बांसुरी का स्वर है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन बुद्ध ने अपना "टाइप' पा लिया। "आथेंटिक', प्रामाणिक रूप से बुद्ध ने वह पा लिया जो वह हो सकते हैं--वह हो गए हैं। कृष्ण ने पा लिया जो वह हो सकते हैं--वह हो गए हैं। पीछे चलने वाले साधक अक्सर "टाइप' की भूल में पड़ते हैं। "टाइप' का "कन्फ्यूजन', इसकी मैंने पीछे बात की, वह वही मतलब है--"स्वधर्मे निधनम् श्रेयः'। वह अपने निजता में मर जाना श्रेयस्कर, और दूसरे के धर्म को स्वीकार कर लेना भयावह।

ओशो रजनीश



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्री कृष्ण स्मृति भाग 125

श्री कृष्ण स्मृति भाग 112