श्री कृष्ण स्मृति भाग 125

  "साधना-जगत में यज्ञों और "रिचुअल्स' का बहुत उल्लेख है। यज्ञ की बहुत विधियां भी हैं। होमात्मक यज्ञ की बात आती है। लेकिन गीता में जपयज्ञ और ज्ञानयज्ञ को विशेष स्थान दिया गया है। साथ ही आपने जप पर बात करते हुए अजपा जप के बारे में कहा था। तो गीता के जपयज्ञ, ज्ञानयज्ञ और अजपा जप पर भी प्रकाश डालने की कृपा करें।'


जीवन में "रिचुअल' की, क्रियाकांड की अपनी जगह है। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह नब्बे प्रतिशत "रिचुअल' और क्रियाकांड से ज्यादा नहीं है। जीवन को जीने के लिए, जीवन से गुजरने के लिए बहुत कुछ जो अनावश्यक है आवश्यक मालूम होता है। आदमी का मन ऐसा है।


मनुष्यजाति के पूरे इतिहास में हजारों तरह के "रिचुअल', हजारों तरह के क्रियात्मक खेल विकसित हुए हैं। ये सारे-के-सारे खेल अगर गंभीरता से ले लिए जाएं, तो बीमारी बन जाते हैं। अगर ये सारे खेल की तरह लिए जाएं, तो उत्सव बन जाते हैं। जैसे, जब पहली बार अग्नि का आविष्कार हुआ--और सबसे बड़े आविष्कारों में अग्नि का आविष्कार है।

आज हमें पता नहीं किस आदमी ने सबसे पहले अग्नि पैदा की है, लेकिन जिसने भी पैदा की होगी, उससे बड़ी क्रांति अभी तक नहीं हो सकती है। बहुत कुछ आदमी ने फिर खोजा है। और फिर न्यूटन है, और गेलेलियो है और कोपरनिकस है और केपलर है और आइंस्टीन है और मेक्सब्लांट और हजारों खोजी हैं, लेकिन अब तक भी, हमारी अणु की खोज भी, हमारा चांद पर पहुंच जाना भी उतना बड़ा आविष्कार नहीं है जितना बड़ा आविष्कार उस दिन हुआ था जिस दिन पहले आदमी ने अग्नि पैदा कर ली थी।

आज हमें बहुत कठिनाई होगी यह सोचकर, क्योंकि अग्नि आज बिलकुल सहज बात है। माचिस में बंद है। लेकिन सदा ऐसा नहीं था। फिर हमारा जो भी विकास हुआ है मनुष्य का, जैसा मनुष्य आज है, उसमें नब्बे प्रतिशत अग्नि का हाथ है। फिर हमारे जो भी आविष्कार हुए हैं, वे सब बिना अग्नि के हो नहीं सकते। उन सब की बुनियाद में वह अग्नि का आविष्कर्ता खड़ा है।

स्वभावतः जब पहली बार अग्नि किसी ने खोजी होगी, तो हमने अग्नि का भी स्वागत किया था उसके चारों ओर नाचकर। यह जिंदगी की बिलकुल सहज घटना थी। अग्नि को और किसी तरह धन्यवाद दिया भी नहीं जा सकता था। और अग्नि ने एक केंद्रीय अर्थ मनुष्य की जिंदगी में उस दिन बना लिया था। मनुष्य के सारे पुराने धर्म, किसी-न-किसी रूप में अग्नि या सूरज के आसपास विकसित हुए हैं। रात थी अंधकारपूर्ण, खतरनाक, पशुओं का डर था। दिन था उजाले से भरा, निर्भय; हमला कोई कर सके, इसके पहले पता चल जाता था। तो सूर्य बड़ा मित्र मालूम हुआ। अंधकार बड़ा शत्रु बन गया। अंधकार में खतरे थे, भय था, उपद्रव था। सूर्य के साथ सब खतरे तिरोहित हो जाते थे, सब भय मिट जाते थे। तो सूर्य परमात्मा की तरह खयाल में आया था। और जब अग्नि का आविष्कार कर लिया, तो स्वभावतः, रात के अंधकार पर भी हमारी विजय हो गई थी। सूर्य से भी ज्यादा अग्नि प्रीतिकर हो गई थी। इस अग्नि के आसपास नाच का, गान का, नृत्य का, प्रेम का, उत्सव का विकसित हो जाना बिलकुल स्वाभाविक था। वह विकसित हुआ।

कभी आपने खयाल किया कि जब यूरी गागरिन पहली बार अंतरिक्ष की यात्रा करके लौटा तो सारी पृथ्वी उत्सव से भर गई थी। और यूरी गागरिन एक दिन में विश्वविख्यात व्यक्ति हो गया था। ठेठ दूर-देहात के गांवों में भी उसका नाम पहुंच गया था। लाखों लोगों ने अपने बच्चों का नाम यूरी गागरिन के ऊपर रखा--सारी दुनिया में, बिना जाति-पांति-धर्म की फिक्र किए। यूरी गागरिन की हैसियत पाने के लिए किसी आदमी को सत्तर-अस्सी साल मेहनत करनी पड़ती है, तब सारी दुनिया उसे जान पाती है। इस आदमी ने कुछ और नहीं किया, यह सिर्फ पृथ्वी की जो "आर्बिट' है, उसको पार कर गया। लेकिन बड़ी घटना थी। यूरी गागरिन जहां गया, वहीं लोग दीवाने हो गए उसके दर्शन करने को। बड़े नगरों में लोग मरे, "एक्सीडेंट' से, जहां यूरी गागरिन गया।

मनुष्य का मन उस सबके प्रति उत्सव से भर जाता है जो नया है, जिससे नए का आगमन होता है। नए बच्चे के जन्म पर ही हम बैंडबाजा नहीं बजाते और उत्सव से भर जाते, जब भी इस जगत में नया कुछ पैदा होता है, तो हमारा चित्त उत्सव से उसका स्वागत करता है और उचित है कि ऐसा हो। क्योंकि जिस दिन आदमी नए के स्वागत में भी उत्सवपूर्ण नहीं रहेगा, उस दिन समझना चाहिए कि आदमी के भीतर कुछ महत्वपूर्ण मर गया है।

यह मैंने इसलिए कहा कि हम यज्ञ को समझ सकें। यह उन लोगों का आविष्कार था, जिनकी जिंदगी में अग्नि पहली बार आयी थी और इस अग्नि के लिए वे उत्सव मना रहे थे। वे इसके चारों ओर नाच रहे थे। और जो कुछ श्रेष्ठ उनके पास था, उन्होंने अग्नि को दिया। क्या दे सकते थे? उनके पास गेहूं था, उन्होंने गेहूं दिया। उनके पास सोमरस था--उस दिन की सुरा थी--वह उन्होंने दी; उनके पास जो श्रेष्ठतम गाय होती, वह उन्होंने अग्नि को दी; उनके पास जो भी था, वह उन्होंने अग्नि को भेंट किया। एक देवता अवतरित हुआ था, जिसने जिंदगी को सब बदल दिया था। उसके उत्सव में उन्होंने सब यह किया। यह बहुत सहज था। लेकिन, यह बहुत "सोफिस्टिकेटेड' नहीं था। यह बिलकुल ग्रामीण-चित्त से उठी हुई बात थी, और ग्राम ही थे जगत में, ग्रामीण-चित्त ही था।

गीता के समय तक ऐसा यज्ञ बेमानी हो गया था। क्योंकि गीता के समय तक अग्नि घर-घर की चीज हो गई थी। उसके आसपास नाचना व्यर्थ मालूम होने लगा था। उसमें गेहूं फेंकना, मंत्र पढ़ना सार्थक नहीं रह गया था। और हजारों लोग इसका विरोध कर चुके थे इस बीच की प्रक्रिया में। क्योंकि उनको कुछ भी पता नहीं था कि अग्नि का पहला आगमन जिनकी जिंदगी में हुआ था, वे उसे भगवान की तरह ही स्वीकार कर सकते थे। उनके लिए उतना बड़ा वरदान था। इसलिए गीता ने फिर शब्दों पर नई कलमें लगाईं और कृष्ण ने नए शब्द ईजाद किए, ज्ञानयज्ञ। यज्ञ था शब्द पुराना, ज्ञान से उसे जोड़ा। जैसे अभी विनोबा ने नई कलम लगाई, भूदान-यज्ञ। यज्ञ था शब्द पुराना, भूदान से उसे जोड़ा।

कृष्ण के समय तक जीवन काफी "सोफिस्टिकेटेड', काफी विकसित हुआ था। और जब अग्नि के आसपास नाचना अपने-आप में अर्थपूर्ण न था। अब तो ज्ञान की अग्नि जलाने की बात कृष्ण ने उठाई। लेकिन स्वभावतः पुराने शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। अब अगर नाचना ही था तो ज्ञान की ज्योति के आसपास नाचना था। और अब कुछ भेंट भी करना था तो गेहूं के दानों से क्या भेंट होगी, अब अपने को ही दान कर देना था। ज्ञानयज्ञ का अर्थ है, ज्ञान की अग्नि में स्वयं को जो समर्पित कर देता है। ज्ञानयज्ञ का अर्थ है, कि अब साधारण अग्नि से नहीं, ज्ञान की अग्नि से, जिसमें व्यक्ति जलता है और समाप्त हो जाता है। यह अग्नि का प्रतीक लेकिन जारी रहा।

इसके जारी रहने के पीछे बहुत गहरे कारण थे।

सबसे बड़ा गहरा कारण जो था वह यह था कि अतीत के मनुष्य की जिंदगी में सदा ऊपर की तरफ जाने वाली चीज सिवाय अग्नि के और कोई भी न थी। पानी नीचे की तरफ जाता है। उसे कहीं से भी डालो, वह नीचे की जगह खोज लेता है। अग्नि के साथ कुछ भी उपाय करो, उसकी लपटें सदा ऊपर की तरफ भागती हैं। पुराने मनुष्य के समक्ष अग्नि भर एक ऐसी चीज थी जो सदा ऊपर की तरफ भागती है; ऊपर की तरफ भागना, ऊर्ध्वगमन ही जिसका स्वभाव है; जिसे हम नीचे की तरफ बहा ही नहीं सकते। अगर हम उलटी भी कर दें जलती हुई लकड़ी को, तो लकड़ी ही उलटी होती है, अग्नि ऊपर की तरफ ही भागती रहती है। ऊर्ध्वगमन का प्रतीक बन गई अग्नि। उसकी लपटें आकाश की यात्रा की, अज्ञात की यात्रा की सूचक हो गईं। जमीन के "ग्रेविटेशन', को तोड़ने वाली वह पहली चीज मालूम पड़ी। पृथ्वी की जो कोशिश है, उसको तोड़ देती है, उसको उससे कोई फिक्र नहीं है। अग्नि पर उसका कोई प्रभाव नहीं है। एक कारण तो यह था कि ऊर्ध्वगमन का प्रतीक अग्नि बन गई, इसलिए जिन्होंने अग्नि की लपटों के आसपास नृत्य किया था, नाचे थे, गीत गाए थे, खुशी प्रगट की थी, उन्होंने एक प्रतीक के अर्थ में भी वह खुशी प्रगट की थी कि किस दिन वह दिन होगा जिस दिन हम भी अग्नि की लपटों की तरह ऊपर की यात्रा करेंगे।

अभी आदमी का मन जैसा है वह सदा नीचे की तरफ यात्रा करता है, पानी की तरह है। आदमी का मन जैसा है, वह सदा नीचे की तरफ यात्रा करता है, उसके नियम पानी के नियम हैं, वह नीचे गङ्ढे खोजता है। उसे पर्वत-शिखर पर भी ले जाकर छोड़ दो तो बहुत जल्दी खाई में नीचे आकर झील में विश्राम करने लगता है। उसे कितनी ही ऊंचाई पर ले जाओ, वह तत्काल नीचे की तरफ जाने को आतुर है। जैसा मनुष्य का मन अभी है, वह नीचे जाने की आतुरता है। अग्नि के आसपास नाचने वाले ऋषियों ने घोषणा की कि हम ऊपर की तरफ की यात्रा के सूत्र को नमस्कार करते हैं। और हम अपने भीतर के प्राणों को अग्नि जैसा बनाना चाहते हैं कि वे ऊपर की तरफ भागें। हम उन्हें नीचे खाई में भी छोड़ दें, खंदक में भी छोड़ दें, घाटी में भी छोड़ दें, तो भी वे शिखर पर चले जाएं। यह बड़ा "सिंबालिक', बड़ा प्रतीकात्मक था।

दूसरी बात अग्नि में और बड़ी खूबी की थी और वह और भी गहरी थी, और वह थी कि अग्नि पहले तो ईंधन को जलाती और फिर खुद ही जल जाती। पहले ईंधन राख होता है, फिर अग्नि खुद राख हो जाती है। ज्ञान के लिए यह प्रतीक बड़ा गहरा बन गया। ज्ञान पहले तो अज्ञान को जलाता है। पहले तो ज्ञान अज्ञान को मिटाता है और फिर ज्ञान ज्ञान को भी मिटा देता है। इसलिए उपनिषद कहते हैं, अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार में, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। निश्चित ही यह व्यंग्य में कही गई बात है उन ज्ञानियों के लिए जिनके पास उधार ज्ञान है। क्योंकि जिनके पास अपना ज्ञान है वे तो बचते ही नहीं, उनके भटकने का तो उपाय नहीं है। ज्ञान पहले तो अज्ञान को जलाता है; फिर ज्ञान को भी जला देता है, ज्ञानी को भी जला देता है, पीछे कुछ भी बचता नहीं। अग्नि पहले ईंधन को जलाती है, फिर ईंधन जल जाता है, फिर अग्नि भी बुझ जाती है, फिर अंगारे भी बुझ जाते हैं, फिर राख ही रह जाती है, फिर सब समाप्त हो जाता है।

तो ज्ञान की घटना जिनके जीवन में घटी, उनको दिखाई पड़ा कि ज्ञान की घटना अग्नि जैसी है। पहले अज्ञान जलेगा, फिर ज्ञान भी जलेगा, फिर ज्ञानी भी जलेगा और पीछे तो सिवाय राख के कुछ बचेगा नहीं। सब तिरोहित हो जाएगा। इतना शून्य होने को जो तैयार है, वह ज्ञान की यात्रा पर निकल सकता है।

तीसरी बात। अग्नि की लपटें हमने उठते देखी हैं, थोड़ी दूर तक ही दिखाई पड़ती हैं, फिर खो जाती हैं। अग्नि बहुत थोड़े दूर तक दृश्य है, इसके बाद अदृश्य हो जाती है। ज्ञान भी बहुत थोड़े दूर तक दिखाई पड़ता है, या ऐसा कहें कि थोड़े दूर तक ज्ञान का संबंध दिखाई पड़ने वाले से रहता है, दृश्य से रहता है, और इसके बाद उसका संबंध अदृश्य से हो जाता है। फिर दृश्य खो जाता है और अदृश्य ही रह जाता है। इन सारे कारणों से अग्नि बड़ा ही समर्थ प्रतीक ज्ञान का बन गया और कृष्ण ज्ञानयज्ञ शब्द का उपयोग कर सके।

ये प्रतीक अगर हमारे खयाल में हों, तो ज्ञानयज्ञ सदा जारी रहेगा। अग्नि के आसपास निर्मित हुए दूसरे "रिचुअल' और यज्ञ तो खो जाएंगे, क्योंकि वे परिस्थिति से पैदा होते हैं, लेकिन ज्ञानयज्ञ सदा जारी रहेगा। इसलिए कृष्ण ने यज्ञ को पहली दफा परिस्थिति से मुक्त करके शाश्वत अर्थ दे दिया। वेद जिस यज्ञ की बात करते थे वह परिस्थिति से बंधा था, एक घटना से जुड़ा था। कृष्ण ने उसे उस घटना से मुक्त कर दिया और एक शाश्वत अर्थ दे दिया। अब कृष्ण के अर्थ में ही यज्ञ का प्रयोजन होगा आगे। उसका अर्थ कृष्ण के द्वारा ही निकल सकता है। और कृष्ण के पहले के अध्याय बंद हो गए हैं। अब भी जो कृष्ण के पहले के यज्ञ की बात करता है, वह असामयिक, "आउट आफ डेट', व्यर्थ की बात करता है; अब उसमें कोई अर्थ नहीं रह गया है, वह बात समाप्त हो चुकी है। अब अग्नि के आसपास आनंद से नहीं कूदा जा सकता, क्योंकि अग्नि अब हमारे जीवन में कोई ऐसी घटना नहीं है।

वह जपयज्ञ की भी बात करते हैं। कृष्ण जपयज्ञ की भी बात करते हैं। जप के साथ भी वही राज है, जो ज्ञान के साथ है। जप पहले तो दूसरे विचारों को जलाएगा, फिर जब दूसरे विचार जल जाएंगे, तो जप का विचार भी जल जाएगा। जो शेष रह जाएगा, वह अजपा स्थिति होती है। इसलिए उसको भी अग्नि से प्रतीक बनाया जा सकता है। वह भी यज्ञ बनाया जा सकता है।

आपके मन में बहुत विचार हैं। आप एक शब्द का जप की भांति प्रयोग करते हैं। सारे विचारों को हटा देते हैं, एक ही विचार पर आप अपने मन को डोलाते हैं। एक घड़ी ऐसी आती है कि यह विचार भी बेमानी हो जाता है कि इसको क्यों दोहराए चले जाना। जब सब विचार ही छूट गए, तो इस एक को भी क्यों पकड़े चले जाना! फिर यह भी छूट जाता है। फिर आप जिस स्थिति में होते हैं, वह अजपा स्थिति है, वहां जप भी नहीं है। अग्नि ने पहले ईंधन जलाया, फिर खुद भी जल गई।

लेकिन, खतरा है जप के साथ, जैसा कि ज्ञान के साथ खतरा है। खतरे सब चीजों के साथ हैं। ऐसा कोई भी रास्ता नहीं है जिस पर न भटका जा सके। ऐसा रास्ता हो भी कैसे सकता है! जो भी रास्ता पहुंचा सकता है, उस पर यात्री चाहे तो भटक भी सकता है। सब रास्ते इस अर्थों में भटकाने वाले की तरह प्रयोग किए जा सकते हैं, और आदमी ऐसा है कि वह सब रास्तों को पहुंचने के लिए काम में कम लाता है, भटकने के लिए ज्यादा काम में लाता है। मैंने कहा कि ज्ञान यज्ञ है, जैसे कृष्ण कहते हैं। लेकिन आदमी ज्ञान का अर्थ ले सकता है पांडित्य, "इनफॅर्मेशन', सूचनाएं, शास्त्र, सिद्धांत, शब्द और इनको इकट्ठा कर ले सकता है। तब वह भटक गया। वैसा आदमी ज्ञान को उपलब्ध ही नहीं हुआ। ज्ञान के नाम से उसने कुछ और ही अपने ऊपर थोप लिया है। और ध्यान रहे, अज्ञान से इतना नुकसान नहीं है जितना मिथ्या ज्ञान से है। अज्ञान से इतना नुकसान नहीं है, जितना झूठे, उधार, बासे ज्ञान से है। क्योंकि बासे ज्ञान में कोई अग्नि नहीं होती। बासा ज्ञान समझना चाहिए कि बुझ गए अंगारों के बुझे कोयलों की तरह है। उसे कितना ही इकट्ठा कर लो, उससे कोई जीवन रूपांतरण नहीं होता है। लेकिन अगर कोई ज्ञान का यह अर्थ ले ले, तो भटकेगा।

ऐसे ही जप के साथ भी कठिनाई है। जप का अगर कोई यह अर्थ ले ले कि जप करते-करते ही पहुंच जाऊंगा, तो गलती में है। जप करते-करते कोई कभी नहीं पहुंचा है। जप का उपयोग ऐसा ही किया जाता है जैसे पैर में एक कांटा लग गया हो और उस कांटे को हम दूसरे कांटे से निकाल देते हैं। लेकिन फिर दूसरे कांटे को पहले वाले कांटे के घाव में रख नहीं लेते सुरक्षित। पहला कांटा निकला कि दूसरा बिलकुल वैसे ही बेकार है, जैसा पहला है, और दोनों को एक-साथ फेंक देते हैं। लेकिन हो सकता है कोई नासमझ! वह कहे कि जिस कांटे ने मेरा कांटा निकाला, उसको मैं कैसे फेंक सकता हूं। वह कहे कि शिष्टता भी तो कम-से-कम इतना कहती है कि जिस कांटे ने मेरा कांटा निकाला उसको मैं सम्हाल कर रखूं। तब यह आदमी पागल है।

बुद्ध निरंतर कहते हैं, बार-बार एक कहानी वह कहते हैं कि एक गांव में कुछ लोग एक नाव से उतरे, फिर जब वे नाव से नदी के किनारे उतर गए तो उन आठों लोगों ने तय किया--वे बड़े बुद्धिमान थे--उन्होंने तय किया कि जिस नाव ने हमें नदी पार कराई, उस नाव को हम छोड़ कैसे सकते हैं! और उन्होंने सोचा कि जिस नाव से हम नदी पार किए और जिस पर हम बैठकर सवार हुए, अब उचित है कि हम उसको अपने ऊपर सवार करें। तो उन्होंने नाव को आठों आदमियों ने अपने सिरों पर उठा लिया और बाजार की तरफ चले। गांव में लोग उनसे पूछने लगे कि पागलो, हमने नाव पर तो बहुत बार लोगों को देखा, लेकिन नाव लोगों पर नहीं देखी, यह बात क्या है? वे सब कहने लगे कि तुम हो अकृतज्ञ। तुम्हें "ग्रेटीच्यूड' का कुछ पता नहीं है। हम जानते हैं अनुग्रह का भाव। इस नाव ने हमें नदी पार करवाई है, अब इस नाव को संसार पार करवा के रहेंगे। अब तो सदा यह हमारे सिर पर रहेगी।

तो बुद्ध यह मजाक में कहते हैं कि बहुत लोग हैं, जो फिर साधना को इस बुरी तरह पकड़ लेते हैं कि वही साध्य हो जाता है। नदी पार करने को नाव है, सिर पर ढोने को नाव नहीं है।

जप का उपयोग किया जा सकता है, इस होश के साथ कि वह भी एक कांटा है। और अगर आपने उसको कांटा नहीं समझा और प्रेम में पड़ गए उसके, तो जो दूसरे विचार आपको भरे थे वे तो हट जाएंगे, जप आपको भर देगा। अब एक आदमी चौबीस घंटे राम-राम, राम-राम कर रहा है, उसकी बजाय हो सकता है जो व्यर्थ विचारों से भरा है उसके जीवन में भी कुछ सार्थकता फलित हो जाए, क्योंकि उसके व्यर्थ विचारों में भी कुछ आ सकता है। इसके पास सिवाय राम-राम के कुछ आने को नहीं है। और जब यह राम-राम को छोड़ने को राजी नहीं होगा, यह कहेगा सब विचारों से छुटकारा दिलाया राम-राम ने, तो अब मैं कैसे छोड़ सकता हूं, अब तो मैं नाव को सिर पर रखूंगा।

जप को यज्ञ कहना बड़ी "सीक्रेट' बात है। कृष्ण जब जप को यज्ञ कहते हैं तो वह कहते हैं, ध्यान रखना, जप भी अग्नि की भांति है। पहले दूसरे को जलाएगा, फिर खुद को जलाएगा, और जब खुद को जला ले तभी समझना कि सार्थक हुआ है।

तो हम शब्द का उपयोग कर सकते हैं दूसरे शब्दों को बाहर करने में, लेकिन फिर उस शब्द को भी बाहर करना पड़ेगा। और अगर मोहग्रस्त हुए और उस शब्द को सम्हालकर रखा तो जप यज्ञ न रहेगा, जप सम्मोहन हो जाएगा। फिर हम जप शब्द से ही "आब्सेस्ड' हो गए, फिर हम उसी से पीड़ित होकर रहने लगेंगे, और वही हमारा पागलपन बन जाएगा। इसलिए जो लोग जप करते वक्त जप में लीन हो जाते हैं, वे लोग जप को फिर कभी न छोड़ सकेंगे, क्योंकि लीनता में एक गहरा संबंध स्थिर हो जाता है। जो लोग जप करते समय साक्षी बने रहते हैं, जो ऐसा अनुभव नहीं करते कि मैं जप कर रहा हूं, बल्कि ऐसा अनुभव करते हैं कि जप मन से हो रहा है और मैं देख रहा हूं, वे एक दिन जप के बाहर जा सकते हैं। तब जप यज्ञ हो जाता है, क्योंकि तब जप अग्नि की भांति हो जाता है। पहले वह दूसरे विचारों को जला देता है, फिर खुद जलकर राख हो जाता है। आप जब खाली रह जाते हैं, शून्य, तब आप ध्यान को, समाधि को उपलब्ध होते हैं।

इसलिए कृष्ण ने ज्ञान और जप, दोनों के साथ यज्ञ का प्रयोग किया। यज्ञ का प्रयोग अग्नि के केंद्र पर है। और अग्नि के प्रतीक को हम समझ लें तो ये दोनों बातें भी साफ समझ में आ सकती हैं। असल में जो जलने को तैयार है, वह यज्ञ के लिए तैयार है, जो मिटने को तैयार है, वह यज्ञ के लिए तैयार है। जो होम होने को तैयार है, वह यज्ञ के लिए तैयार है। और तब सब यज्ञ छोटे पड़ जाते हैं और जीवनयज्ञ ही शेष रह जाता है।

ओशो रजनीश



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