श्री कृष्ण स्मृति भाग 123

 "समान व्यसन हों तो पुरुष-पुरुष में मैत्री हो जाती है!'


पूछते हैं कि समान व्यसन हो, तो मैत्री हो जाती है।

बहुत-सी बातें इसमें खयाल लेनी पड़ेंगी। समान व्यसन की जो मैत्री है, वह एक ही "टाइप' के लोगों में भी हो सकती है। लेकिन समान व्यसन उनकी मैत्री का आधार होगा। उनके बीच कोई मैत्री नहीं होगी, व्यसन ही उनकी मैत्री का सेतु होगा। अगर व्यसन छूट जाए, तो मैत्री तत्काल टूट जाएगी। अगर दो आदमी शराब पीते हैं, तो उनमें मैत्री हो जाती है। शराब पीने के कारण। एक ही काम दोनों करते हैं, इसलिए मैत्री हो जाती है। लेकिन मैत्री नहीं है कोई भी। क्योंकि मैत्री सदा अकारण होती है। मैत्री सदा अकारण होती है। अगर कारण है, तो मैत्री नहीं, सिर्फ "एसोसिएशन' है, साथ है।

साथ और मैत्री में फर्क है।

हम दो आदमी एक रास्ते पर चल रहे हैं, साथ हो जाता है। यह कोई मैत्री नहीं है। फिर मेरी मंजिल का रास्ता मुड़ जाता है अलग, आपकी मंजिल का अलग, तो हम अपने रास्तों पर चले जाते हैं। एक रास्ते पर चलने वाले दो राहगीर जैसे बीच में साथ हो जाते हैं, ऐसे एक व्यसन पर चलने वाले दो लोग साथ हो जाते हैं। लेकिन यह मैत्री नहीं है। सच तो यह है कि मैत्री सदा विपरीत व्यक्तित्वों में होती है। विपरीत व्यक्तित्वों में मैत्री होती है। इसलिए मैत्री जितनी गहरी होगी, उतने विपरीत व्यक्तित्व होंगे। क्योंकि यह "कांप्लीमेंट्री' होते हैं। मित्र जो हैं, वे एक-दूसरे को "कांप्लीमेंट्री' होते हैं, एक-दूसरे के परिपूरक होते हैं। इसलिए अक्सर ऐसा हुआ है कि दो बुद्धिमान लोगों में मैत्री नहीं हो सकेगी। वे "कांप्लीमेंट्री' नहीं हैं। उनमें कलह हो सकती है, मैत्री नहीं हो सकती। अगर बुद्धिमान से किसी की मैत्री होगी तो वह निर्बुद्धि से होगी, वह "कांप्लीमेंट्री' है। दो शक्तिशाली व्यक्तियों में मैत्री नहीं हो सकेगी। असल में दो समकक्ष और ठीक एक दिशा से आए हुए व्यक्तियों में मैत्री नहीं हो सकेगी। दो कवियों में मैत्री मुश्किल है। दो चित्रकारों में मैत्री मुश्किल है। और अगर होगी, तो उसके कारण उनके चित्रकार होने से अन्य होंगे। क्योंकि एक व्यक्ति में बहुत-सी बातें हैं। दोनों शराब पीते होंगे, यह हो सकती है मैत्री कि दोनों जुआ खेलते होंगे, यह हो सकती है मैत्री। लेकिन यह संग-साथ है, यह मैत्री नहीं है। मैत्री का नियम भी विपरीत का ही है। मैत्री प्रेम का ही एक रूप है।

इसलिए मनोवैज्ञानिक तो यह कहते हैं कि अगर दो पुरुषों में बहुत गहरी मैत्री है, तो किसी-न-किसी गहरे अर्थों में वे "होमोसेक्सुअल' होने चाहिए। अगर दो स्त्रियों में बहुत गहरी मैत्री है, तो वह "होमोसेक्सुअल' होनी चाहिए। एकदम से राजी होना बहुत मुश्किल हो जाता है, लेकिन इसमें सचाइयां हैं। इसलिए आप देखेंगे कि बचपन जैसी मैत्री फिर बाद में कभी निर्मित नहीं होती। क्योंकि बचपन में एक "फेज' "होमोसेक्सुअलिटी' का हर आदमी की जिंदगी में आता है। लड़के, इसके पहले कि लड़कियों में उत्सुक हों, लड़कों में उत्सुक होते हैं। लड़कियां, इसके पहले कि लड़कों में उत्सुक हों, पहले लड़कियों में उत्सुक होती हैं। असल में "सेक्स मेच्योरिटी' होने के पहले, काम की दृष्टि से, यौन की दृष्टि से परिपक्व होने के पहले कोई काम-भेद बुनियादी नहीं होता। लड़के-लड़कों में उत्सुक होते हैं। लड़कियां-लड़कियों में उत्सुक होती हैं। इसलिए बचपन की सहेलियां और बचपन के मित्र चिरस्थायी हो जाते हैं। सेक्स के जन्म के बाद जब सेक्स अपने पूरे प्रभाव में प्रगट होता है, तो जो लोग सहज स्वस्थ हैं, लड़के लड़कियों में उत्सुक होना शुरू हो जाएंगे, लड़कियां लड़कों में उत्सुक होना शुरू हो जाएंगी। पुरानी मित्रताएं और सहेलीपन शिथिल होने लगेंगे। या याददाश्तें रह जाएंगे। धीरे-धीरे नई मैत्रियां बननी शुरू होंगी जो "अपोजिट' से होंगी, विपरीत से होंगी। हां, कोई पच्चीसत्तीस परसेंट लोग नहीं पार कर पाएंगे इस स्थिति को। इसका मतलब है कि उनकी "मेंटल एज' पिछड़ गई। उसका मतलब है कि वह मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं।

ऐसा हो सकता है कि एक लड़का अठारह-बीस साल का हो गया, फिर भी लड़कियों में उत्सुक नहीं है और लड़कों में ही उत्सुक है, तो उसकी मानसिक उम्र पिछड़ गई। यह मानसिक रूप से बीमार है, इसकी चिकित्सा की जरूरत है। अगर कोई लड़की पच्चीस साल की होकर भी लड़कियों में ही उत्सुक है, लड़कों में उत्सुक नहीं है, तो उसके मनस के साथ कोई बीमारी हो गई है, कोई दुर्घटना घट गई है, यह स्वस्थ नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि बाद में मित्रतायें नहीं होंगी, बाद में मित्रतायें होंगी, लेकिन वे "एसोसिएशन' की होंगी। एक ही क्लब में आप ताश खेलते हैं, मित्रता हो जाएगी। एक ही धंदे में काम करते हैं, मित्रता हो जाएगी। एक ही सिद्धांत को मानते हैं, कम्युनिस्ट हैं दोनों, तो मित्रता हो जाएगी। एक ही गुरु के शिष्य हो गए हैं तो मित्रता हो जाएगी। लेकिन ये मित्रतायें वैसी मित्रतायें नहीं हैं जैसा कि यौन-जन्म के पहले एक गहरा प्रगाढ़ मैत्री का संबंध होता है। इसलिए बचपन की मैत्री फिर कभी नहीं लौटती। वह लौट नहीं सकती। उसका आधार खो गया।

और विपरीत में बड़ा गहरा आकर्षण है। अगर आप इसको ऐसा भी समझें तो थोड़ा खयाल में आ जाएगा। आप अक्सर देखेंगे, नंगे फकीर के पास कपड़ों को प्रेम करने वाले लोग पहुंचेंगे। त्यागी के पास भोगी इकट्ठे हो जाएंगे। जो खूब खाने-पीने में मजा लेते हैं वे किसी उपवास करने वाले की पूजा करने लगेंगे। अब यह बड़े मजे की बात है। महावीर नग्न थे और जैन कपड़ा बेचने का ही काम करते हैं! कैसे जैनों ने कपड़े बेचने का काम चुन लिया, थोड़ा सोचने जैसा है। जरूर कपड़े को प्रेम करने वाले लोग महावीर के इर्द-गिर्द इकट्ठे हो गए। महावीर सब छोड़कर दीन हो गए, हिंदुस्तान में महावीर को मानने वाले सबसे ज्यादा समृद्ध हैं। यह आकस्मिक नहीं है, "एक्सिडेंटल' नहीं है, ये घटनायें इनके ऐतिहासिक कारण हैं। असल में महावीर ने जब सब छोड़ा तो जो सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे वे ही होंगे जो सब पकड़े हुए हैं। क्योंकि वे कहेंगे, अरे, हम एक पैसा नहीं छोड़ सकते हैं, और इस आदमी ने तो सब छोड़ दिया, लात मार दी! भगवान है यह आदमी! यह जो उनका आकर्षण है चित्त का, यह उनकी पकड़ की वजह से। त्यागी महावीर से बिलकुल प्रभावित नहीं होगा, वह कहेगा, क्या किया तुमने? इसमें है ही क्या? राख को लात मार दी तो मार दी। इसमें कौन-सी बड़ी बात है। लेकिन जो उस राख को समझता था हीरा है, वह फौरन महावीर के चरणों में सिर रख देगा कि मान गए, आप हैं आदमी! हम एक पैसा नहीं छोड़ सकते और तुमने सब छोड़ दिया। तुम हमारे गुरु हुए।

फिर जो कुछ नहीं छोड़ सकता, उसके मन में छोड़ने की कामना सदा बसती रहती है। जो कुछ नहीं छोड़ सकता है, वह भी सोचता है कि बड़ा दुख झेल रहा हूं पकड़ने से, कब वह दिन आएगा जब सब छोड़ दूं! तो जो सब छोड़ देता है, वह उसका आदर्श बन जाता है फौरन, कि इस आदमी को वह दिन आ गया जिसकी मुझे अभी प्रतीक्षा है। कोई बात नहीं, अभी मैं तो नहीं हो सका, लेकिन तुम हो गए। हम तुम्हें भगवान तो मान ही सकते हैं। इसलिए त्यागियों के पास भोगी इकट्ठे हो जाएंगे। यह बड़ा "मेग्नेटिक' काम है, जो अपने-आप चलता रहता है। इसको अगर हम पहचान लें तो हम सारी दुनिया की चेतना को "मेग्नेटिक फील्ड्स' में बांट सकते हैं कि किस तरह दुनिया की चेतना आकर्षित होती रहती है, बनती रहती है, मिटती रहती है। अजीब काम चलता रहता है जो दिखाई नहीं पड़ता ऊपर से।

तो जब भी आप किसी से आकर्षित हों, तो एक बात पक्की समझ लेना कि इस आदमी से बचना। यह आपका "टाइप' नहीं है, यह उल्टा "टाइप' है। "कांप्लीमेंट्री' है। अध्यात्म की यात्रा में सहयोगी न होगा, संसार की यात्रा में साथी हो सकता है। अध्यात्म की यात्रा में आपको अपनी ही खोज करनी पड़ेगी, स्वधर्म की। मैं कौन हूं, उसकी ही खोज करनी पड़ेगी। वह खोज हो जाए, तो आप जीवन को बिना छोड़े, गति को बिना छोड़े, कर्म को बिना छोड़े अकर्म को उपलब्ध हो जाएंगे। संसार को बिना छोड़े सत्य को उपलब्ध हो जाएंगे। सब जैसा है वैसा ही रहेगा, सिर्फ आप बदल जाते हैं। सब जैसा है, ठीक वैसा ही रहेगा। सिर्फ आप बदल जाते हैं। और जिस दिन आप बदल जाते हैं, उस दिन सब बदल जाता है, क्योंकि जो सब दिखाई पड़ता है वह आपकी दृष्टि है।

ओशो रजनीश



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