श्री कृष्ण स्मृति भाग 126
"भगवान श्री, श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञानीजन कर्मफल त्याग कर जन्मरूप बंधन से छूट जाते हैं और परमपद को प्राप्त करते हैं। तो क्या कृष्ण जन्म को बंधन मानते हैं? आप तो जन्म को, संसार को निर्वाण ही है, ऐसा कहते हैं।'
कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजन कर्मफल की आसक्ति को छोड़कर, फलासक्ति को छोड़कर जन्मरूपी बंधन से मुक्त हो जाते हैं। ये सब बातें समझने जैसी हैं।
पहली बात, फलासक्ति से मुक्त होकर। कर्म से मुक्त होकर नहीं, फलासक्ति से मुक्त होकर। कर्म से मुक्त होने को नहीं कहा जा रहा है कि काम से मुक्त हो जाने का जोर ही इसलिए है कि कर्म पीछे बचाया गया है। कर्म तो रहेगा, फलासक्ति नहीं रहेगी।
फलासक्ति से मुक्त होकर कोई कैसे कर्म को उपलब्ध होगा, यह थोड़ा सोचने जैसा है। हम तो अगर फल से मुक्त हो जाएं तो कर्म से ही मुक्त हो जाएंगे। अगर कोई आपसे कहे कि फल की कामना न करें, और कर्म करें, तो आप कहेंगे, मैं पागल हूं! अगर फल की कामना नहीं है तो कर्म क्यों होगा? फल की कामना से ही तो कर्म होता है। एक कदम भी उठाते हैं तो किसी फल की कामना से उठाते हैं। अगर फल की कामना ही नहीं होगी, तो कदम ही क्यों उठेगा? हम उठाएंगे ही क्यों?
इस "फलासक्ति से मुक्त होकर', इस शब्द ने, जिन लोगों ने कृष्ण को सोचा है उन्हें बड़ी कठिनाई में डाला है। और सबसे बड़ी कठिनाई उन्होंने यह पैदा की है कि तब उन्होंने एक बहुत ही रहस्यपूर्ण ढंग से फल की पुनर्प्रतिष्ठा कर दी है। फिर उन्होंने यह कहा कि जो फलासक्ति से मुक्त होते हैं, वे मोक्ष को या मुक्ति को उपलब्ध हो जाते हैं। और मुक्ति और मोक्ष को फल की तरह उपयोग में लाना शुरू किया है, कि तुम ऐसा करोगे, तो ऐसा मिलेगा। तुम ऐसा करोगे तो ऐसा नहीं मिलेगा। यही तो फल की आकांक्षा है। मोक्ष को भी फल बना लिया। तभी वे लोगों को समझा पाए कि तुम सब और फलों को छोड़ दो। तो मोक्ष को अगर पाना चाहते हो, तो सब फलों को छोड़कर ही तुम मोक्ष को पा सकते हो। लेकिन यह तो कृष्ण के साथ बड़ी ज्यादती हो गई। अगर कृष्ण ऐसा भी कहते हैं कि जो सब फलासक्ति से मुक्त हो जाते हैं, वे ज्ञानीजन जन्मरूपी बंधन से मुक्त होते हैं, तो उनकी मुक्त होने की जो बात है वह सिर्फ परिणाम की सूचक है। "कांसीक्वेंस' की खबर है। वह फल नहीं है। ऐसा नहीं है कि जिन्हें जन्मरूपी बंधन से मुक्त होना है, वे फल की आकांक्षा छोड़ दें, तब तो यह फिर फल की ही आकांक्षा हो गई। यह सिर्फ खबर है कि ऐसा होता है। फल की आकांक्षा छोड़ने से मुक्ति फलित होती है, ऐसा होता है। लेकिन मुक्ति की आकांक्षा जो करता है उसे तो मुक्ति कभी फलित नहीं हो सकती, क्योंकि वह फल की आकांक्षा करता है। लेकिन हम बिना फल-आकांक्षा के कर्म कैसे करेंगे?
इसे समझने के लिए यह देखना जरूरी होगा कि हमारी जिंदगी में दो तरह के कर्म हैं। एक कर्म तो वह है जो हम अभी करते हैं, कल कुछ कुछ पाने की आशा में। ऐसा कर्म भविष्य की तरफ से "पुल' है, खींचना है। भविष्य खींच रहा है लगाम की तरह। जैसे एक गाय को कोई गले में रस्सी बांध खींचे लिए जा रहा है, ऐसा भविष्य हमारे गले में रस्सियां डालकर हमें खींचे लिए जा रहा है। यह मिलेगा, इसलिए हम यह कर रहे हैं। वह मिलेगा, इसलिए हम वह कर रहे हैं। मिलेगा भविष्य में, कर अभी रहे हैं। रस्सी अभी गले में पड़ी है; हाथ में जो फंदा है रस्सी का, वह भविष्य के लिए है। मिलेगा, नहीं मिलेगा, यह पक्का नहीं है। क्योंकि भविष्य का अर्थ ही यह है कि जो पक्का नहीं है। भविष्य का अर्थ ही यह है, जो अभी नहीं हुआ है, होगा। लेकिन उस आशा में हम रस्सी में बंधे हुए पशु की तरह भागे चले जा रहे हैं।
यह बड़े मजे की बात है, यह शब्द पशु बड़ा बढ़िया है। कभी आपने शायद खयाल न किया होगा कि पशु का मतलब होता है, जो पाश में बंधा हुआ खिंचा जा रहा है। पशु शब्द का ही मतलब होता है, जो पाश में बंधा हुआ खिंचा जा रहा है। तब तो हम सब पशु हैं, अगर हम भविष्य के पाश में बंधे हुए खिंचे जा रहे हैं। पशु का मतलब ही इतना है कि जो भविष्य से बंधा है और जिसकी लगाम भविष्य के हाथों में है और जो खिंचा जा रहा है। जो रोज आज इसलिए जीता है कि कल कुछ होगा, कल भी इसीलिए जियेगा कि परसों कुछ होगा। जो हर दिन आज कल के लिए जियेगा और कभी नहीं जी पाएगा--क्योंकि जब आएगा तब आज आएगा, और जीना उसका सदा कल होगा। कल भी यही होगा, परसों भी यही होगा, क्योंकि जब भी समय आएगा वह आज की तरह आएगा और यह आदमी पाश में बंधा हुआ पशु की तरह भविष्य से खिंचा हुआ कल में जियेगा। यह कभी नहीं जी पाएगा। इसकी पूरी जिंदगी अनजियी, "अनलिव्ड' बीत जाएगी। मरते वक्त यह कह सकेगा कि मैंने सिर्फ जीने की कामना की, मैं जी नहीं पाया हूं। और मरते वक्त उसकी सबसे बड़ी पीड़ा यही होगी कि अब आगे कोई फल नहीं दिखाई पड़ता। और कोई पीड़ा नहीं है। अगर आगे कोई फल दिखाई पड़ जाए इसे, तो यह मौत को भी झेलने को राजी हो जाएगा। इसलिए मरता हुआ आदमी पूछता है, पुनर्जन्म है? मैं मरूंगा तो नहीं? वह असल में यह पूछ रहा है, कल है अभी बाकी? अगर कल हो तो चल सकता है, क्योंकि मेरे जीने का ढंग कल पर निर्भर है। अगर कल नहीं है अब, तो बड़ा मुश्किल हो गया। मैं तो रोज-रोज कल के लिए जिया और आज अचानक पाता हूं कि आज के साथ ही सब समाप्त होता है और कल नहीं है। "फ्यूचर ओरियेंटेड लिविंग' जो है, वह फलासक्ति का अर्थ है। भविष्य-केंद्रित जीवन।
एक ऐसा कर्म भी है, जो भविष्य से खिंचाव की तरह नहीं निकलता, बल्कि "स्पांटेनियस' है और झरने की तरह हमारे भीतर से फूटता है। जो हम हैं, उससे निकलता है। जो हम होंगे, उससे नहीं। रास्ते पर आप जा रहे हैं, किसी आदमी का--आपके सामने चल रहा है, उसका छाता गिर गया है, आपने उठाया और छाता दे दिया। न तो छाता देते वक्त यह खयाल आया कि कोई "प्रेसरिपोर्टर' आसपास है या नहीं; न छाता देते वक्त यह खयाल आया कि कोई "फोटोग्राफर' आसपास है या नहीं; न छाता देते वक्त यह खयाल आया कि कोई देख रहा है कि नहीं देख रहा है; न छाता देते वक्त यह खयाल आया कि यह आदमी धन्यवाद देगा कि नहीं; तो यह कर्म फलासक्तिरहित हुआ। यह आपसे निकला सहज। लेकिन समझें कि उस आदमी ने आपको धन्यवाद नहीं दिया, दबाया छाता और चल दिया। और अगर मन में विषाद की जरा-सी भी रेखा आई, तो आपको फलाकांक्षा का पता नहीं था लेकिन अचेतन में फलाकांक्षा प्रतीक्षा कर रही थी। आप सचेतन नहीं थे कि इसके धन्यवाद देने के लिए मैं छाता उठाकर दे रहा हूं, लेकिन अचेतन मन मांग ही रहा था कि धन्यवाद दो। उसने धन्यवाद नहीं दिया, उसने छाता दबाया और चल दिया, तो आपके मन में विषाद की एक रेखा छूट गई और आपने कहा कि यह कैसा कृतघ्न, कैसा अकृतज्ञ आदमी है! मैंने छाता उठाकर दिया और धन्यवाद भी नहीं! तो भी फलाकांक्षा हो गई। अगर कृत्य अपने में पूरा है, "टोटल', अपने से बाहर उसकी कोई मांग ही नहीं है, तो फलाकांक्षारहित हो जाता है।
कोई भी कृत्य जो अपने में पूरा है, "सर्किल' की तरह है; वृत्त की तरह अपने को घेरता है और पूर्ण हो जाता है और अपने से बाहर की कोई अपेक्षा ही उसमें नहीं है। बल्कि छाता देकर आपने उसे धन्यवाद दिया कि तूने मुझे एक पूर्ण कृत्य करने का मौका दिया, जिसमें कि कोई आकांक्षा न थी वह अवसर मेरे लिए दे दिया! फलाकांक्षा से भरा हुआ व्यक्ति किसी-न-किसी तरह की आकांक्षा, अपेक्षा से भरा होगा। लेकिन जब पूर्ण कृत्य होता है तो वह इतना आनंद दे जाता है कि उसके पार कोई मांग नहीं है। फलाकांक्षारहित कृत्य का मेरी दृष्टि में जो अर्थ है वह यह है कि कृत्य पूर्ण हो, उसके बाहर कोई सवाल ही नहीं है। वह खुद ही इतना आनंद दे जाता है, वह खुद ही अपना फल है, कृत्य ही अपना फल है, आज ही अपना फल है, यही क्षण अपना फल है।
जीसस एक गांव से गुजर रहे हैं और उस गांव के आसपास लिली के फूलों के बड़े खेत हैं और वह अपने शिष्यों से कहते हैं कि देखते हो इन लिली के फूलों को? शिष्य बड़ी देर से देख रहे थे, लेकिन नहीं देख रहे थे, क्योंकि सिर्फ आंखों से तो नहीं देखा जाता, प्राणों से देखा जाता है। जीसस ने कहा, देखते हो इन लिली के फूलों को? उन्होंने कहा, देखते हैं, इसमें देखने जैसा क्या है? जैसे लिली के फूल होते हैं, वैसे हैं। जीसस ने कहा, नहीं, मैं तुमसे कहता हूं कि सोलोमन भी--सम्राट सोलोमन भी अपनी पूरी प्रतिष्ठा और गौरव में इतना सुंदर न था जितना ये गरीब लिली के फूल इस गांव के किनारे हैं। जीसस से पूछा कि सोलोमन से इनकी आप क्या तुलना करते हैं? कहां सोलोमन! यहूदी विचार में कुबेर का तुलनात्मक प्रतीक है सोलोमन। कहां सोलोमन, कहां ये गरीब लिली के फूल, इस अनजाने गांव के रास्तों पर खिले! जीसस ने कहा कि नहीं, लेकिन देखो गौर से। सोलोमन भी अपनी पूरी "ग्लोरी' में, जब वह पूरा अपने वैभव पर था तब भी इस एक साधारण से लिली के फूल के बराबर सुंदर न था।
कोई पूछता है कि क्या कारण है? तो जीसस कहते हैं, फूल अभी और यहीं खिलते हैं, सोलोमन सदा भविष्य में रहता है। और भविष्य का तनाव कुरूप कर जाता है। फूल अभी और यहीं खिलते हैं। फूलों को कल कोई पता नहीं। यही हवा का झोंका सब कुछ है, यही सूरज की किरण सब कुछ है, यही पृथ्वी का टुकड़ा सब कुछ है; यही राह, यही होना, बस यही सब कुछ है, इसके बाहर कुछ होना नहीं। ऐसा नहीं कि सांझ नहीं आएगी। सांझ अपने से आएगी। आपकी अपेक्षाओं से आती है? आपकी आकांक्षाओं से आती है? ऐसा नहीं है कि इन फूलों में बीज नहीं लगेंगे और फल नहीं बनेंगे, वे अपने से लगते हैं। आपकी अपेक्षाओं से लगते हैं? लेकिन हम उस पागल औरत की तरह हैं, जिसके बाबत हम सबको पता होगा ही, क्योंकि हम सब उसकी तरह हैं।
एक पागल औरत एक दिन सुबह अपने गांव से नाराज होकर चली गई। गांव भर के लोगों ने कहा कि यह क्या कर रही हो? कहां जा रही हो? उसने कहा कि अब मैं जा रही हूं, तुमने मुझे बहुत सताया, अब कल से तुम्हें पता चलेगा! पर उन लोगों ने कहा कि बात क्या है? उसने कहा, मैं वह मुर्गा अपने साथ लिए जा रही हूं जिसकी बांग देने पर इस गांव में सूरज ऊगा करता था। अब यह सूरज दूसरे गांव में ऊगेगा। वह दूसरे गांव पहुंच गई। सुबह सूरज ऊगा--मुर्गे ने बांग दी, सूरज ऊगा, उसने कहा, अब रोते होंगे नासमझ, क्योंकि अब सूरज इस गांव में ऊग रहा है।
उस बूढ़ी औरत के तर्क में कोई खामी है? जरा भी नहीं। उसके मुर्गे की बांग देने से सूरज ऊगता था। और फिर जब दूसरे गांव में भी बांग देने से सूरज ऊगा, तब तो बिलकुल पक्का ही हो गया न, कि अब उस गांव का क्या होगा! मुर्गे ऐसी भ्रांति में नहीं पड़ते, लेकिन मुर्गों के मालिक पड़ जाते हैं। मुर्गे तो सूरज ऊगता है, इसलिए बांग देते हैं, मुर्गों के मालिक समझते हैं कि अपना मुर्गा बांग दे रहा है, इसलिए सूरज ऊग रहा है।
हम सबका चित्त ऐसा है। भविष्य तो आता है अपने से। वह आ ही रहा है, वह हमारे रोके न रुकेगा। कल आते हैं अपने से, वे हमारे रोके न रुकेंगे। हम अपने कृत्य को पूरा कर लें, इतना काफी है, उसके बाहर हमें होने की जरूरत नहीं है। कृष्ण इतना ही कहते हैं कि तुम्हारा कृत्य पूरा हो--"द एक्ट मस्ट बी टोटल'। "टोटल' का मतलब है कि उसके बाहर करने को कुछ तुम्हें कुछ भी न बचे, तुम पूरा उसे कर लिए और बात खत्म हो गई। इसलिए वे कहते हैं कि तुम परमात्मा पर छोड़ दो फल। परमात्मा पर छोड़ने का मतलब यह नहीं है कि कोई नियंता, कहीं "कंट्रोलर' कोई बैठा है, उस पर तुम छोड़ दो, वह तुम्हारा हिसाब-किताब रखेगा। परमात्मा पर छोड़ने का कुल इतना ही मतलब है कि तुम कृपा करो, तुम सिर्फ करो और समष्टि से उस करने की प्रतिध्वनि आती ही है। वह आ ही जाएगी। जैसे कि मैं इन पहाड़ों में जोर से चिल्लाऊं और कोई मुझसे कहे कि तुम चिल्लाओ भर, प्रतिध्वनि की चिंता मत करो, पहाड़ प्रतिध्वनि करते ही हैं। तुम पहाड़ों पर छोड़ दो प्रतिध्वनि की बात। तुम नाहक चिंतित मत होओ, क्योंकि तुम्हारी चिंता तुम्हें ठीक से ध्वनि भी न करने देगी और फिर हो सकता है प्रतिध्वनि भी न हो पाए, क्योंकि प्रतिध्वनि होने के लिए ध्वनि तो होनी चाहिए। फलाकांक्षा कर्म को ही नहीं करने देती। फलाकांक्षा में उलझे हुए लोग कर्म करने से चूक ही जाते हैं, क्योंकि कर्म का क्षण है वर्तमान और फल का क्षण है भविष्य। जिनकी आंखें भविष्य पर गड़ी हैं भविष्य पर, कल पर, फल पर, तो काम तो बेमानी हो जाता है। किसी तरह हम करते हैं। नजर लगी होती है आगे, ध्यान लगा होता है आगे--और जहां ध्यान है, वहीं हम हैं। और अगर ध्यान वर्तमान क्षण पर नहीं है, तो गैर-ध्यान में, "इनअटेंटिविली' जो होता है, उस होने में बहुत गहराई नहीं होती, उस होने में पूर्णता नहीं होती, उस होने में आनंद नहीं होता है।
कृष्ण की फलाकांक्षारहित कर्म की जो दृष्टि है, उसका कुल मतलब इतना है कि तुम इतना भी अपना हिस्सा भविष्य के लिए मत तोड़ो कि इस काम में बाधा पड़ जाए, तुम इस काम को पूरा ही कर लो। भविष्य जब आए तब भविष्य में पूरे हो लेना, कृपा करके अभी तुम पूरे हो लो। अभी तुम इसी में पूरे हो लो, भविष्य आएगा। और तुम्हारे पूरे होने से फल निकलेगा। उसकी तुम चिंता ही मत करो, उसे तुम निश्चिंत हो परमात्मा पर छोड़ सकते हो। इसका मतलब यह हुआ कि हम जो कर रहे हैं वह हमारा आनंद हो जाए, तभी हम भविष्य से और फल से बच सकते हैं। जो हम कर रहे हैं वह हमारे आनंद से सृजित हो, वह हमारे आनंद से निकले, उसका आविर्भाव हमारे आनंद से हो, वह हमारे भीतर से झरने की तरह फूटे--किसी भविष्य के लिए नहीं; पशु की तरह नहीं, झरने की तरह। झरना किसी भविष्य के लिए नहीं फूट रहा है।
भला आप सोचते होंगे कि नदियां सागर के लिए बह रही हैं, गलती में हैं आप। सागर तक पहुंच जाती हैं, यह दूसरी बात है। नदियां बहती हैं अपने वेग से, नदियां बहती हैं अपने "ओरिजनल सोर्स' की क्षमता से। गंगोत्री की क्षमता से गंगा बहती है। सागर तक पहुंचती है, यह बिलकुल दूसरी बात है। इस पूरी लंबी यात्रा में गंगा को सागर से कुछ लेना-देना नहीं है। सागर मिलेगा कि नहीं मिलेगा, इससे कोई संबंध ही नहीं है। गंगा की भीतरी ऊर्जा इतनी है कि वह बहाए लिए जाती है, बहाए लिए जाती है, और हर तट पर गंगा नाच रही है। कोई सागर के तट पर ही नाचती है, ऐसा नहीं, हर तट पर नाच रही है। पत्थरों में, पहाड़ों में, गङ्ढों में, ऊंचाइयों पर, नीचाइयों में, सुख में, दुख में, निर्जन में, रेगिस्तान में, वृक्षों में, हरियाली में, मनुष्यों में, न-मनुष्यों में, वह हर जगह नाच रही है। जहां है जिस तट पर पहुंचने के लिए वह किसी तट से जल्दी में नहीं है। फिर एक दिन वह सागर तक पहुंच जाती है। सागर तक पहुंच जाना उसके जीवन की फलश्रुति है। वह फल है, लेकिन उस फल के लिए कहीं कोई आकांक्षा नहीं है। एक झरना फूट रहा है, अपनी भीतरी ऊर्जा से उसका कृत्य फूटता है। कृष्ण यह कह रहे हैं कि आदमी ऐसा जिये कि अपनी भीतरी ऊर्जा से फूटता रहे। मेरी दृष्टि में संन्यासी में और गृहस्थ में यही फर्क है। गृहस्थ रोज कल के लिए जीता है, संन्यासी आज की ऊर्जा से फूटता है और जीता है। आज पर्याप्त है। कल आएगा, वह भी आज की तरह आएगा, उसमें भी हम आज की तरह जी लेंगे।
मुहम्मद के जीवन में एक छोटी-सी घटना है। मुहम्मद उन थोड़े-से संन्यासियों में हैं जैसे संन्यासी मैं दुनिया में देखना चाहूंगा। मुहम्मद को रोज लोग भेंट कर जाते हैं। कोई मिठाइयां दे जाता है, कोई रुपये दे जाता है, कोई कुछ कर जाता है। सांझ तक जो लोग आते हैं, खाते हैं, पीते हैं, सांझ को मुहम्मद अपनी पत्नी को कहते हैं कि अब सब बांट दो, क्योंकि सांझ हो गई। तो जो भी होता है, सब बांट दिया जाता है। सांझ मुहम्मद फिर फकीर हो जाते हैं। उनकी पत्नी उनसे पूछती भी है कि यह ठीक नहीं है, कल के लिए कुछ बचाना उचित है, तो मुहम्मद कहते हैं कि जो आज आया था, कल उसकी फिर प्रतीक्षा करेंगे। और जब आज बीत गया, तो कल भी बीत जाएगा। और फिर वह अपनी पत्नी से कहते हैं कि क्या तू मुझे नास्तिक समझती है कि मैं कल का इंतजाम करूं? कल का इंतजाम नास्तिकता है। कल का इंतजाम इस बात की सूचना है कि जिस समष्टि ने मुझे आज दिया, कल पता नहीं देगी, नहीं देगी! कल का इंतजाम अश्रद्धा है। कल का इंतजाम अश्रद्धा है जागतिक ऊर्जा पर, विश्व-प्राण पर। जिसने मुझे आज दिया, वह कल मुझे देगा या नहीं देगा, इसलिए मैं इंतजाम कर लूं। लेकिन मैं कितना इंतजाम कर पाऊंगा, क्या इंतजाम कर पाऊंगा और मेरे इंतजाम कहां तक काम पड़ेंगे। मुहम्मद कहते हैं, बांट दे, कल सुबह फिर श्रद्धा से प्रतीक्षा करेंगे। मुहम्मद कहते हैं, मैं आस्तिक हूं। तो कल के लिए बचाकर नहीं रख सकता, नहीं तो परमात्मा क्या कहेगा कि ऐ मुहम्मद, तेरा इतना भी भरोसा नहीं! तो रोज सांझ सब बंट जाता है।
फिर मुहम्मद की मौत आती है। मरने की रात, चिकित्सकों ने कहा है कि आज वह बच न सकेंगे। तो उनकी पत्नी ने सोचा कि आज तो कुछ बचा लेना चाहिए, रात दवा-दारू की जरूरत हो सकती है! खैर, कल सुबह कोई लाएगा, वह तो ठीक है, लेकिन आधीरात कौन लाएगा? तो उसने पांच दीनार, पांच रुपये तकिये के नीचे छिपा दिए। सांझ को जब सब बांटा है, पांच रुपये छिपा दिए। रात को बारह बजे मुहम्मद बड़ी तड़फन में हैं, बड़ी पीड़ा में हैं। आखिर उन्होंने अपनी चादर उघाड़ी और अपनी पत्नी से पूछा कि मैं सोचता हूं, समझता हूं कि मालूम होता है आज गरीब मुहम्मद गरीब नहीं है। कुछ घर में बचा है। उसकी पत्नी तो बहुत घबड़ा गई। उसने कहा आपको कैसे पता चला? तो मुहम्मद ने कहा कि तेरे चेहरे को देखकर पता चलता है, क्योंकि आज तू वैसी निश्चिंत नहीं है जैसी सदा निश्चिंत है। घर में तूने जरूर कुछ बचाया है। जो चिंतित हैं वे भी बचा लेते हैं, जो बचा लेते हैं वे भी चिंतित हो जाते हैं, वह "विसियस सर्किल' है। तो मुहम्मद कहते हैं, उसे निकाल और बांट दे अभी। मुझे शांति से मरने दे। आखिरी रात, कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा कहे कि आखिरी रात मुहम्मद, तू चूक गया! और जब मैं उसके सामने जाऊं तो अपराधी की तरह खड़ा होना पड़े। निकाल कहां है? उसकी पत्नी ने घबड़ाहट में वे पांच रुपये जो छिपा रखे थे कि रात दवा-दारू की जरूरत पड़े, निकाले। मुहम्मद ने कहा, किसी को भी पुकार दे सड़क से। तब उसने कहा, आधी रात कौन होगा? उन्होंने कहा, तू पुकार दे। पुकार दी गई है, कोई बाहर सड़क पर भिखारी था वह भीतर आ गया। मुहम्मद ने कहा, देख, आधी रात को लेने वाला आ सकता है तो देने वाला भी आ सकता है। तू उसको दे दे। ये पांच रुपये दे दे। वे पांच रुपये उसे दे दिए गए, फिर मुहम्मद ने चादर ओढ़ ली और वह उनका आखिरी कृत्य था उनका चादर ओढ़ना। मुहम्मद डूब गए उसी वक्त। जैसे वे पांच रुपये अटकाव थे। जैसे वे पांच रुपये बाधा थे। जैसे वे पांच रुपये पीड़ा थे। जैसे वह पांच रुपये की गांठ उस संन्यासी को भारी पड़ रही थी, रोके हुए थी।
प्रत्येक कृत्य और प्रत्येक क्षण और प्रत्येक दिन अपने में पूरा होता जाए, तो भी कल आता है। कल सदा आता रहा है, लेकिन तब कल रोज नया होता है। बासा नहीं होता। और तब कल जैसा अभी आता है, वह "फ्रस्ट्रेट' नहीं करता। कल हमें विषाद से भर देगा अगर आज की हमारी अपेक्षाओं के विपरीत पड़ा। और किन अपेक्षाओं के अनुकूल भविष्य पड़ता है! कभी नहीं पड़ता। क्योंकि भविष्य इतने विराट पर निर्भर है और हमारी अपेक्षाएं इतने क्षुद्र पर निर्भर हैं कि इस क्षुद्र की अपेक्षाएं इस विराट में कैसे पूरी होंगी! उनका कोई पता ही नहीं चलेगा। यह ऐसा ही है जैसे कि नदी की बहती धार में एक बूंद तय करती हो कि अगर पश्चिम को कल बहें तो बड़ा अच्छा। नदी की पूरी धार में एक बूंद कहां निर्णायक होगी कि पश्चिम को बहें। नदी को जहां बहना है, बहेगी। एक बूंद उसके साथ ही होगी, लेकिन कल दुखी होगी। क्योंकि उसने तय किया था पश्चिम बहने का और नदी पूरब बही जा रही है और तब विषाद और पीड़ा भर जाएगी। अपेक्षाएं, फलाकांक्षाएं, विषाद, दुख, "फ्रस्ट्रेशन' और पीड़ा से भर जाती हैं, असफलताओं से भर जाती हैं। जो आदमी प्रतिपल पूरा जी रहा है, उसके जीवन में विषाद नहीं है।
इसलिए जो कर रहे हैं, उस करने में पूरे हो जाएं और फल परमात्मा पर छोड़ दें। ऐसा जो करेगा, तो कृष्ण कहते हैं, वह जन्म के, जन्मरूपी बंधन से छूट जाता है। और वह बड़े मजे की बात कह रहे हैं। वह यह कह रहे हैं, जन्मरूपी बंधन से। जन्म बंधन है, ऐसा वह नहीं कह रहे हैं। असल में जो आदमी फलाकांक्षा से भरा है, वह आदमी जन्म लेने की आतुरता से भरा होता है। क्योंकि फल को पूरा करने के लिए कल तो होना चाहिए न! जो आदमी फलों में जीता है, वह आदमी जन्म लेने की आतुरता में जीता है। उसे जन्म लेना ही पड़ेगा। और जो आदमी फलों में जीता है उसके लिए जन्म बंधन बन जाता है। वह उसकी मुक्ति नहीं रहती। रहेगी नहीं मुक्ति। क्योंकि जन्म का भी आनंद उसे नहीं है। आनंद तो उसे कुछ फल मिलने का है। जन्म भी उसके लिए आनंद नहीं है। जन्म भी एक अवसर है, जिसमें वह कुछ फलों को पाकर आनंदित होना चाहता है। मृत्यु उसके लिए दुख होगी, क्योंकि मृत्यु उसे उन सब मार्गों को तोड़ देगी जिन मार्गों से भविष्य में जिआ जा सकता था। और जन्म उसके लिए बंधन मालूम पड़ेगा। जन्म उसके लिए इसलिए बंधन मालूम पड़ेगा कि वह जीवन को जानता ही नहीं है, जो मुक्ति है। और एक बार कोई जीवन को जान ले, तो जन्म भी नहीं रह जाता और मृत्यु भी नहीं रह जाती है। कृष्ण ने उसमें जो बात कही है वह अधूरी है, उसे पूरा किया जाना चाहिए। वह कह रहे हैं, जन्मरूपी बंधन से मुक्त हो जाता है। मैं आपको कहता हूं, वह मृत्युरूपी बंधन से भी मुक्त हो जाता है।
इसका मतलब यह नहीं है कि जन्म और मृत्यु बंधन हैं। इसका मतलब यह है कि जन्म और मृत्यु बंधन प्रतीत होते हैं अज्ञान में। ज्ञानी के लिए तो जन्म और मृत्यु रह ही नहीं जाते। यह जो बंधन की प्रतीति है, वह अज्ञानी चित्त की प्रतीति है। और जो मुक्ति की प्रतीति है, वह ज्ञानी चित्त की प्रतीति है। जन्म बुरा है, ऐसा वह नहीं कह रहे। लेकिन जैसे हम हैं, उनको जन्म बंधन मालूम होगा। हम जैसे आदमी प्रेम तक को बंधन बना लेते हैं। मेरे पास न-मालूम कितने मित्रों की लड़कियों के, लड़कों के विवाह के निमंत्रण आते हैं, उसमें लिखा रहता है कि मेरी पुत्री प्रेम के बंधन में बंधने जा रही है; मेरा बेटा विवाह के बंधन में बंध रहा है। हम प्रेम को भी बंधन बना लेते हैं; जबकि प्रेम मुक्ति है। कहना तो यही उचित होगा कि मेरी बेटी प्रेम में मुक्त होने जा रही है। हम कहते हैं, बेटी प्रेम में बंधने जा रही है। हम प्रेम को भी बंधन बना लेते हैं। इसमें प्रेम बंधन है ऐसा नहीं, हम जैसे हैं, हम मृत्यु को भी बंधन बना लेते हैं। हम जैसे हैं, हम पूरे जीवन को ही बंधन बना लेते हैं। हम जैसे हैं हम प्रेम को भी बंधन बना लेते हैं। हम जैसे हैं, हम पूरे जीवन को ही बंधनों की एक शृंखला बना लेते हैं। जो व्यक्ति क्षण में जीता है, वर्तमान में जीता, फलाकांक्षा से मुक्त जीता, अनासक्त जीता, जो व्यक्ति जीवन को अभिनय की तरह जीता, जो करता हुआ न करता है, न करता हुआ करता है, ऐसा व्यक्ति जिंदगी में जो भी है उस सबको मुक्ति बना लेता है। उसके लिए बंधन भी मुक्ति हो जाते हैं, हमारे लिए मुक्ति भी बंधन है। यह हमारे होने के ढंग पर निर्भर करता है। इसलिए कृष्ण की बात में कोई जन्म बंधन है, ऐसा जन्म की निंदा नहीं है, हम जैसे हैं, हमने जन्म को बंधन बनाया है। और अगर हम फलाकांक्षारहित होकर जीना शुरू करें, तो जन्म हमारे लिए बंधन नहीं रह जाएगा। ऐसा व्यक्ति जीवनमुक्ति को उपलब्ध होता है। यही जीवन मुक्ति। यहीं है वह जीवन, अभी है वह जीवन। हमारे देखने पर निर्भर करता है।
मैंने सुना है कि एक विद्रोही को--एक विद्रोही फकीर को, एक सूफी को किसी खलीफा ने कारागृह में डाल दिया। उसके हाथों पर जंजीरें डाल दीं, उसके पैरों में बेड़ियां डाल दीं और वह सूफी, वह फकीर जो निरंतर स्वतंत्रता के गीत गाता था, जेल के सींखचों में डाल दिया गया। सम्राट--वह खलीफा उससे मिलने गया। और उसने पूछा कि कोई तकलीफ तो नहीं है? तो उस फकीर ने कहा, तकलीफ कैसी! शाही मेहमान को तकलीफ कैसे हो सकती है! आप मेजबान, आप "होस्ट', तकलीफ कैसे हो सकती है! हम बड़े आनंद में हैं। झोपड़े से महल में ले आए। उस सम्राट ने कहा, मजाक तो नहीं करते हो? उस फकीर ने कहा, जिंदगी को मजाक समझा, इसीलिए ऐसा कह पाते हैं। तो उसने कहा कि जंजीरें बहुत बोझिल तो नहीं हैं? ये जंजीरें कोई पीड़ा तो नहीं देतीं? तो उस फकीर ने जंजीरों को गौर से देखा और उसने कहा कि मुझसे बहुत दूर हैं। मेरे और इन जंजीरों के बीच बड़ा फासला है। सो तुम इस भ्रम में होओगे कि तुमने मुझे कारागृह में डाला, लेकिन मेरी मुक्ति को तुम कारागृह नहीं बना सकते, क्योंकि मैं कारागृह को भी मुक्ति बना सकता हूं।
इस पर ही सब निर्भर करता है कि हम कैसे देखते हैं। उस फकीर ने कहा, बड़ा फासला है इन जंजीरों में और मुझमें। तुम कैसे मुझ पर जंजीरें डालोगे? मंसूर को सूली दी गई और मंसूर के हाथ-पैर काटे गए और लाखों लोग देखने इकट्ठे थे, लेकिन मंसूर हंसता ही रहा, और उसकी हंसी बढ़ती ही गई। जब उसके पैर काटे, तब वह जितना हंस रहा था, जब हाथ काटे तब और जोर से हंसने लगा। लोगों ने पूछा कि पागल मंसूर, यह कोई हंसने की घड़ी है? मंसूर ने कहा कि मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तुम समझ रहे हो कि मुझे मार रहे हो, और तुम किसी और को काटे जा रहे हो! याद रखना, मंसूर ने कहा, कि मंसूर को जब तुम काट रहे थे तब वह हंस रहा था। ध्यान रखना कि तुम मंसूर को छू भी नहीं सकते हो, काटना तो बहुत दूर की बात है। और तुम जिसे काट रहे हो, वह मंसूर नहीं है। मंसूर तो वही है जो हंस रहा है। तब तो जो जल्लाद उसको काट रहे थे, जो उसके दुश्मन उसे काट रहे थे उन्होंने कहा कि कैसे हंसता है हम देखें, उन्होंने जीभ काट दी मंसूर की, लेकिन तब मंसूर की आंखें हंस रही थीं। इन लाखों लोगों ने कहा, जीभ तो तुमने काट दी, लेकिन मंसूर हंस रहा है, उसकी आंखें हंस रही हैं। उन जल्लादों ने उसकी आंखें फोड़ दीं। लेकिन मंसूर का चेहरा हंसता रहा। उसका रोआं-रोआं हंस रहा था। लोगों ने का तुम इसको न रुला सकोगे। अब इस आदमी के पास काटने को भी कुछ नहीं बचा, लेकिन उसका पूरा अस्तित्व हंस रहा है।
जीवन वैसा ही हो जाता है, जैसे हम हैं। जन्म वैसा ही हो जाता है, जैसे हम हैं। मृत्यु वैसी ही हो जाती है, जैसे हम हैं। यदि हम मुक्ति हैं, तो जन्म मुक्ति है, जीवन मुक्ति है, मृत्यु मुक्ति है। यदि हम बंधे हैं, पाश में पशु हैं, तो जन्म बंधन है, जीवन बंधन है, प्रेम बंधन है, मृत्यु बंधन है, सब बंधन है। परमात्मा भी तब एक बंधन की तरह ही दिखाई पड़ता है।
ओशो रजनीश
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