श्री कृष्ण स्मृति भाग 101

 "भगवान श्री, मेरे पूर्व प्रश्न का एक अंश बाकी रहा लेने से। वह यह कि शंकर का "सुपरामॉरलिज्म' और तिलक का "एक्टिविज्म', दोनों को मिलाने से क्या आप मानते हैं कि गीता पूरी हो जाएगी? क्योंकि जिस अति-नैतिकता की बात आप करते हैं, उसकी बात शंकर करते हैं, तिलक नहीं। तिलक घोर नैतिकवादी हैं। और जिस प्रवृत्ति की बात आप करते हैं, उसकी बात तिलक करते हैं, शंकर नहीं, वह निवृत्तिमार्गी हैं।'


यह बात सच है। शंकर अति-नैतिकवादी हैं, "सुपरामॉरलिस्ट'। क्योंकि नीतिवादी कर्मवादी होगा। नैतिक धारणा कहेगी, यह करो और यह मत करो। शंकर कहते हैं, सभी कर्म माया है। तो तुम चोरी करो कि साधुता करो, सब कर्म माया है। रात में सपना देखूं कि डाकू हो गया, कि रात में सपना देखूं कि साधु हो गया, सुबह उठकर कहता हूं, दोनों सपने थे। दोनों एक-से बेकार हो गए। इसलिए शंकर के लिए कोई नीति नहीं है, कोई अनीति नहीं है--हो नहीं सकती। चुनाव का कोई उपाय नहीं है। दो सपने में कोई चुनाव होता है? चुनाव तो तभी हो सकता है जब हम दो यथार्थों में चुनाव करते हों।

तो चूंकि जगत माया है, इसलिए शंकर के विचार में नैतिकता की कोई जगह नहीं है। शंकर की दृष्टि अति-नैतिक है। वह नैतिकता के पार चली जाती है। अकर्म नैतिकता के पार जाएगा ही। इसलिए जब शंकर की टीका के पहली दफा पश्चिम में अनुवाद हुए, तो लोगों ने उसे "इस्मारल' ही समझा। उसे समझा कि यह तो बड़ी अनैतिक दृष्टि है। क्योंकि अगर कुछ ठीक नहीं, कुछ गलत नहीं, सभी कर्म एक-सा है और सभी स्वप्न एक-से हैं, तब तो आदमी भटक जाएगा। तब तो आदमी पतित हो जाएगा। तब तो आदमी का क्या होगा? तो पश्चिम में, जो कि हिब्रू विचार पर खड़े हुए लोग हैं, जहां कि सारा धर्म "डू दिस एंड डू नाट डू दिस', इस पर खड़ा हुआ है, जहां "टेन कमांडमेंट्स' के आधार पर सारी संस्कृति खड़ी हुई है, जहां धर्म का मतलब है साफ-साफ बताना कि क्या करो और क्या न करो, उनके लिए शंकर की बात अनैतिक मालूम पड़े तो कठिन नहीं है। लेकिन, शंकर की बात अनैतिक नहीं है। क्योंकि अनैतिक का मतलब होता है, नीति के विपरीत चुनाव। शंकर की बात अचुनाव की है, "च्वॉइसलेस' है। इसलिए अति-नैतिक है। वह यह भी नहीं कहते कि तुम अनैतिक हो जाओ, वह यह नहीं कहते हैं कि तुम चोर हो जाओ। वह यह नहीं कहते कि तुम होने को चुनो, यही कहते हैं कि गलती है तुम्हारी। तुम कुछ होने को ही मत चुनो। तुम न-होने में हो जाओ। यह अति-नैतिक, "ट्रांसमॉरल' दृष्टि है।

तिलक की दृष्टि नैतिक दृष्टि है, "मॉरल' दृष्टि है। वे कहते हैं, कर्म में चुनाव है। शुभ कर्म है, अशुभ कर्म है। करने योग्य कर्म हैं, न करने योग्य कर्म हैं। वांछनीय है, अवांछनीय है। और मनुष्य का धर्म "आट' "चाहिए' के आसपास निर्मित है। तो तिलक तो कर्मवादी हैं। इसलिए वह जगत को अयथार्थ नहीं कहते, यथार्थ कहते हैं। और यह जो दिखाई पड़ रहा है, यह माया नहीं है, सत्य है। और इस सत्य के बीच हम जो हैं, निर्णायक हैं, और ठीक और गलत का प्रतिपल चुनाव है। और धर्म का अर्थ ही यही है कि प्रतिपल हम उसको चुनें जो शुभ है। तो तिलक तो ठीक विपरीत व्याख्या में हैं।

प्रश्न यह पूछा गया है कि क्या इन दोनों के मिला देने से पूरी बात हो जाएगी? नहीं। नहीं होगी पूरी बात। उसके कई कारण हैं।

पहला जो सबसे बुनियादी कारण है वह यह है कि अगर हम एक आदमी के हाथ-पैर और हड्डियां सब अलग कर लें और फिर मिलाकर रख दें, तो क्या आदमी पूरा हो जाएगा? नहीं, पूरा नहीं होगा। आदमी पूरा हो तो हड्डियां इकट्ठे में काम करती हैं, हड्डियों को जोड़कर आदमी को पूरा करें, तो पूरा आदमी नहीं आता। "पार्ट्स' को इकट्ठा करने से "होल' पैदा नहीं होता। अंश को जोड़ने से पूर्ण नहीं बनता। जोड़ कभी पूर्ण पर नहीं ले जाता। हां, पूर्ण में अंश जुड़े होते हैं, यह बिलकुल दूसरी बात है।

तो जो मैं कह रहा हूं, उसमें तिलक और शंकर समाहित हो जाएंगे। लेकिन तिलक और शंकर को जोड़ने से कृष्ण की पूरी दृष्टि नहीं समझी जा सकती। और भी एक कारण है कि तिलक और शंकर सिर्फ दो दृष्टियां हैं। कृष्ण के बाबत और हजार दृष्टियां भी हैं। लेकिन उन सबको जोड़ने से भी कृष्ण नहीं बनेंगे। जोड़ हमेशा "मेकेनिकल' होगा, "आर्गनिक' नहीं हो पाता। तो एक मशीन को तो हम जोड़कर पूरा बना सकते हैं, लेकिन एक व्यक्तित्व को, जीवंत व्यक्तित्व को हम जोड़कर कभी पूरा नहीं बना सकते। यह बड़े मजे की बात है। यह मजे की बात है, "मेकेनिकल' जोड़ में और "आर्गनिक' जोड़ में, मृत जोड़ में और जीवंत जोड़ में एक बुनियादी फर्क है, जो खयाल में ले लेना चाहिए।

मृत जोड़ अपने अंशों का पूरा जोड़ होता है। जीवंत जोड़ अपने अंशों से थोड़ा ज्यादा होता है। जीवंत जोड़ का मतलब है, जैसे आप हैं, अगर आपके शरीर के हम सारे अंगों का हिसाब-किताब कर लें कि कितना लोहा है आपके भीतर, कितना तांबा है आपके भीतर, कितना "अल्यूमीनियम' है आपके भीतर, कितना नमक है, कितना पानी है, कितना "फास्फोरस' है, कितना क्या है वह हम सब जोड़कर निकाल लें, तो एक आदमी के भीतर मुश्किल से तीन-चार रुपये का सामान होता है। इससे ज्यादा नहीं नहीं होता। ज्यादा हिस्सा, कोई नब्बे हिस्सा तो पानी ही होता है। जिसका दाम लगाना फिलहाल ठीक नहीं। बाकी जो "अल्यूमीनियम', "फास्फोरस', लोहा इत्यादि सब होता है मिला-जुला कर, वह कोई तीन और चार रुपये, पांच और चार रुपये के बीच होता है। यह सारा अगर हम एक कागज पर रख लें--सब--और इसको जोड़ दें, तो जोड़ तो हो जाएगा लेकिन आप उसमें बिलकुल नहीं होंगे; आप भर नहीं होंगे और सब होगा। क्योंकि आप एक जीवंत व्यक्ति थे, जो इस जोड़ से ज्यादा थे। इस जोड़ के भीतर थे, लेकिन जोड़ ही नहीं थे। इस जोड़ के भीतर मौजूद थे, लेकिन जोड़ ही नहीं थे। यह जोड़ पूरा हो जाएगा और आप नहीं होंगे।

कृष्ण का जो जीवनदर्शन है, वह एक "आर्गनिक यूनिटी' है। उससे हजार पहलुओं पर टीकाएं हुई हैं। उस पर रामानुज कुछ और कहते हैं, शंकर कुछ और कहते, निंबार्क कुछ और कहते, अरविंद कुछ और कहते। ये हजारों कुछ-कुछ कहने वाले लोगों को अगर हम सबको इकट्ठा करके रख लें, तो भी वह "आर्गनिक यूनिटी' पैदा नहीं होती है जो कृष्ण हैं। हां, सब इकट्ठा हो जाएगा, कृष्ण उसमें नहीं होंगे। हां, इससे उलटी बात जरूर सच है। अगर कृष्ण हों, तो यह सब उसमें होगा। लेकिन इससे कुछ ज्यादा भी होगा। इसलिए शंकर और तिलक के जोड़ने से तो कुछ मामला नहीं बड़ा अगर हम समस्त व्याख्याकारों को, समस्त टीकाकारों को जोड़ लें, तो भी वह पूर्ण से कम होगा और मृत होगा। वह जीवंत नहीं हो सकता। वह जोड़ ही होगा। वह गणित का जोड़ ही होगा। वह "आर्गनिक टोटलिटी' नहीं हो सकती।

इसलिए मैं जो कह रहा हूं, वह कृष्ण की कोई व्याख्या नहीं है। मैं कोई उनकी व्याख्या नहीं कर रहा। मुझे उनकी व्याख्या से प्रयोजन ही नहीं है। इसलिए मैं जरा भी चिंतित और भयभीत नहीं हूं कि मेरे वक्तव्यों में विरोध हो जाएगा। होगा ही। क्योंकि वह कृष्ण में है, उसका मैं कुछ कर नहीं सकता। मैं कृष्ण की व्याख्या नहीं कर रहा, कृष्ण को सिर्फ आपके सामने खोल रहा हूं। मैं अपने को उन पर थोपने का कोई उपाय नहीं कर रहा, सिर्फ उनको खोल रहा हूं। वे जैसे हैं--गलत हैं, सही हैं; अनुचित हैं, उचित हैं, जैसे हैं; "एब्सर्ड' हैं, "इर्रेशनल' हैं, "सुपरारेशनल' हैं, जैसे हैं; नैतिक हैं, अनैतिक हैं, जैसे हैं; मुझे उनमें कोई चुनाव नहीं है। जैसे कृष्ण को जीवन में कोई चुनाव नहीं है, ऐसा मैं उनमें कोई चुनाव नहीं कर रहा, उनको बस खोले चला जा रहा हूं। इसमें मैं बहुत कठिनाई में पडूंगा ही। इसलिए कठिनाई में पडूंगा, जैसे कि कृष्ण की गीता से हजारों साल कठिनाई में पड़े हैं, तो मैं जो भी कहूंगा, वह फिर टीका योग्य होगा; वह टीका योग्य होगा और आप सब उसकी टीका करते हुए लौटेंगे कि मेरा क्या मतलब था? क्योंकि मैं तो सीधा पूरा ही खोले दे रहा हूं। उसमें मैं कोई यह फर्क कर ही नहीं रहा कि यह कहने से कृष्ण की दूसरी बात कहने में क्या कठिनाई होगी, इसका हिसाब ही नहीं रख रहा हूं। दूसरी बात जब होगी तब दूसरी बात कह दूंगा, तीसरी बात जब होगी तब तीसरी कह दूंगा। उनको खोलता चला जाऊंगा, वे जैसे हैं पूरे आपके सामने खुल जाए। तो जो मैं कह रहा हूं, इसीलिए मैंने कहा, वह व्याख्या नहीं है, वह "कमेंट्री' नहीं है।

ओशो रजनीश



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