श्री कृष्ण स्मृति भाग 102

 "भगवान श्री, श्री अरविंद ने जो टीका श्रीमद्भगवद्गीता पर लिखी है, अभी आपने उनका नाम लिया तो खयाल आया कि आप सृष्टि-दृष्टिवाद, जिसमें सृष्टि पर भार है और दृष्टि-सृष्टिवाद, जिसमें दृष्टि पर भार है--उन दोनों के करीब आ गए। तकलीफ यह है कि अरविंद "सुपरामेंटल' की जब बात करते हैं कि प्रभु की चेतना नीचे उतरेगी, तब एक "डुअलिज्म' आ जाता है। वह आ जाता है या नहीं? और रमण महर्षि का अजातवाद चैतन्य महाप्रभु के अचिंत्य भेदाभेदवाद के पास और आपके पास भी आता है कि नहीं? और अरविंद का कृष्ण-दर्शन का वह प्रसंग क्या था?'


अरविंद "सुपरामेंटल' की बात करते हैं। अति-चेतन, अति-मनस की बात करते हैं। लेकिन, बात है "रेशनल'। अरविंद बुद्धि से पार कभी नहीं जाते। वे अगर बुद्धि के अतीत की बात भी करते हैं, तो बुद्धिगत धारणाओं में ही करते हैं। अरविंद निपट बुद्धिवादी हैं। वे जो बात करते हैं, जिन शब्दों, जिन धारणाओं की चर्चा करते हैं, वे सब धारणाएं अरविंद के बुद्धिवाद की धारणाएं हैं। अरविंद के पूरे वक्तव्य में बड़ी संगति है, जो "सुपरारेशनल' के वक्तव्यों में कभी नहीं होती। बड़ी "कंसिस्टेंसी' है। बड़ा गणित है, बड़ा तर्क है, जो "मिस्टिक' के शब्दों में नहीं होता। हो नहीं सकता। "मिस्टिक' के, रहस्यवादी के शब्द में तो एक शब्द के बाद जो दूसरा शब्द होता है, वह पहले का खंडन कर जाता है। अरविंद कहीं अपना खंडन नहीं करते।

अरविंद एक सुव्यवस्थित "सिस्टम मेकर' हैं। "सिस्टम मेकर' कभी भी "सुपरारेशनल' नहीं होता। हो नहीं सकता है। "सिस्टम' बनाना हो तो "रीज़न' से बनती है। और जो "सुपरारेशनल' होते हैं, सदा गैर-"सिस्टेमेटिक' होते हैं। उनकी कोई "सिस्टम' नहीं होती। "सिस्टम' हो नहीं सकती। व्यवस्था होगी कैसे अतक्र्य में? अचिंत्य में व्यवस्था होगी कैसे? इसलिए इस सदी में जितने लोग "रीज़न' के थोड़े पार गए हैं, वे सब "फ्रेग्मेंटरी' हैं, "सिस्टेमेटिक' नहीं हैं। चाहे विट्गिंस्टीन हो, चाहे हुसरेर हो, चाहे हाइडिगर हो, मारलुपांटी हो--कोई भी हों, ये सारे-के-सारे लोग "फ्रेग्मेंटरी' हैं। कृष्णमूर्ति हों, ये सब "फ्रेग्मेंटरी' हैं। इनकी कोई "सिस्टम' नहीं है। इनकी कोई "सिस्टम' नहीं है। ये कोई व्यवस्था नहीं बनाते। इनके वक्तव्य "एटामिक' हैं, आणविक हैं। और एक वक्तव्य दूसरे वक्तव्य का खंडन कर सकता है, करता है।

अरविंद का मामला बहुत भिन्न है। सच तो यह है कि शंकर के बाद हिंदुस्तान में अरविंद के मुकाबले बड़ा "सिस्टम मेकर' नहीं हुआ। इतना बड़ा व्यवस्थापक नहीं हुआ है। लेकिन यही उनकी कमजोरी और गरीबी है। यही उनकी दीनता है। क्योंकि वह शब्द और तर्क और सिद्धांत के बड़े माहिर, कुशल खिलाड़ी हैं। लेकिन जिंदगी का असली सत्य इन सबसे पार है। तो वह विभाजन करके रख देते हैं। असल में अरविंद की शिक्षा पश्चिम में हुई--सारी शिक्षा। सीखकर लौटे वे तर्क और गणित। सीखकर लौटे वे पश्चिम के सोने की ऍ?रिस्टॉटेलियन पद्धति। सीखकर लौटे वे डार्विन का विकासवाद। सीखकर लौटे वे विज्ञान की तर्क-चिंतन व्यवस्था। सारा मानस उनका पाश्चात्य है। हिंदुस्तान में अरविंद से ज्यादा पाश्चात्य मानस का व्यक्ति नहीं था इस सदी में। फिर पूरब की उन्होंने की व्याख्या, सो जो होना था वह हुआ। पूरब के पास कोई तर्क-व्यवस्था नहीं है। पूरब की गहनतम अनुभूतियां अतक्र्य हैं। पूरब के अनुभव अचिंत्य हैं। पूरब के अनुभव अज्ञात, अनजान के, ज्ञान के अतीत के हैं, जानने वाले के पार के हैं। पूरब का अनुभव रहस्य का है, "मिस्ट्री' का है। फिर अरविंद पश्चिम का मानस लेकर और पूरब की अनुभूतियों की व्याख्या करने बैठे, सो एक अच्छी व्यवस्था बनी जो कि पूरब का कोई आदमी न बना सकता था। तो उन्होंने सारी बातें कीं, और सारे साधन उपयोग किए चिंत्य के।

लेकिन वे बातें ही हैं, इसीलिए वे चिंत्य के माध्यम से कर सके। अगर अनुभव भी अरविंद का अचिंत्य का हो, तब "कैटेगरीज' टूट जाती हैं, वे "कैटेगरीज' में नहीं जी सकते थे। कहीं "कैटेगरीज' नहीं टूटतीं। यानी मजे की बात यह है कि वे उन चीजों के लिए भी धारणाएं बनाते हैं जिनके लिए कभी धारणाएं नहीं बनाई गई थीं। जैसे "सुपरामेंटल'। वह बनाते जाते हैं धारणाएं, वह खंड करते जाते हैं, वह ठीक गणित बिठाए चले जाते हैं, वह सारी बात कर देते हैं।

दूसरी बात जो पूछी है, वह भी इस संबंध में खयाल लेने जैसी है।

धर्मों का, समस्त धर्मों का चिंतन एक अर्थ में गैर-विकासवादी है, "नॉन एवॅलूशनरी' है। समस्त धर्म दो हिस्सों में बंटे रहे हैं। एक हिस्सा है, जो "क्रिएशन' में मानता है, सृष्टि में मानता है। जैसे ईसाई हैं, मुसलमान हैं, हिंदू हैं, सब सृष्टि में मानते हैं। यह मानते हैं, परमात्मा ने सृष्टि की। और जो लोग सृष्टि में मानते हैं, वे गहरे में विकास में नहीं मान सकते। क्योंकि विकास में मानने का यह मतलब होगा कि परमात्मा ने जब पहले बनाया प्रकृति को, सृष्टि को, तो वह अपूर्ण थी, और फिर धीरे-धीरे उसमें विकास हुआ। पूर्ण परमात्मा अपूर्ण को नहीं बना सकता है। इसलिए सृष्टिवादी विकासवादी नहीं हो पाता। विकास का मतलब है, रोज विकास हो रहा है। सृष्टि का मतलब है, एक क्षण में पूरा-का-पूरा सृजन किया गया है, विकास नहीं हो रहा। जो ऐसा नहीं मानते थे, जैसे जैन या बौद्ध, तो उन्होंने माना कि सृष्टि हुई ही नहीं है। जो है वह अनादि है, उसका कभी सृजन नहीं हुआ। सृजन हुआ ही नहीं।

इसलिए बड़े मजे की बात है, सृष्टि हिंदुओं का शब्द है, प्रकृति जैनों, बौद्धों, सांख्यों का शब्द है। अब सब घोल-मेल हो गया धीरे-धीरे। प्रकृति शब्द हिंदुओं का नहीं है, क्योंकि हिंदू प्रकृति कह ही नहीं सकते। प्रकृति का मतलब है, जो बनाने के पहले से मौजूद है, "प्रीक्रिएशन', जो बनाने के पहले से भी मौजूद है। जो सदा मौजूद ही है, जिसको कभी बनाया ही नहीं गया। सृष्टि का मतलब है, जो कभी मौजूद नहीं थी और कभी बनाई गई। इसलिए प्रकृति शब्द बड़े और लोगों का है। वह उनका है जो "क्रिएशन' में मानते ही नहीं। और सृष्टि उनका है, जो मानते हैं किसी क्षण में सृष्टि बनाई गई। इसलिए सांख्य, जैन या बौद्ध चूंकि सृष्टि को नहीं मानते, इसलिए उनके पास स्रष्टा की कोई धारणा नहीं है। जब बनाया ही नहीं गया, तो बनाने वाले का कोई सवाल नहीं है। इसलिए ईश्वर खो गया वहां। उसकी कोई जगह वहां नहीं रही। क्योंकि ईश्वर को बनाने वाले की तरह हमें जरूरत पड़ी थी। और जिन्होंने माना बनाया ही नहीं गया, बात खत्म हो गई। जिन्होंने सृष्टि मानी, उनके पास स्रष्टा है।

अरविंद पश्चिम से धारणा लेकर आए "एवॅल्यूशन' की। अरविंद की जब शिक्षा हुई तब डार्विन छाया हुआ था यूरोप पर। वह धारणा लेकर आए विकास की। यहां आकर पूर्वी मनस का जब उन्होंने अध्ययन किया और पूर्वी अनुभूतियों का जब उन्होंने--अध्ययन किया मैं कहता हूं, जाना नहीं। अध्ययन उनका गहन है। ज्ञान उनका इतना गहन नहीं है। मनन और चिंतन, उनकी बड़ी तीव्र मेधा है; लेकिन अनुभूति उनकी बहुत क्षीण है। तो जब उन्होंने पूरब का पूरा अध्ययन किया और पश्चिम के मनस और डार्सिन के खयाल को लेकर वे आए, तो जिसको हम कहते हैं, "क्रास ब्रीडिंग', अरविंद में "क्रास ब्रीडिंग' हो गई। वर्णसंकर एक विचार पैदा हुआ। वह वर्णसंकर विचार में विकास का सिद्धांत भारत के मनस में जुड़ गया। अब बड़ी तकलीफ हुई। क्योंकि भारत का मनस प्रकृति की, पदार्थ की चिंतना ही नहीं करता, वह चिंतना करता है चित्त की, मनस की, आत्मा की। और पश्चिम से विकास का सिद्धांत लेकर वह आए और भारत के मनस की "साइकिक' चिंतना का दोनों का जोड़ हो गया, तो "साइकिक एवॅल्यूशन' का खयाल अरविंद को पैदा हो गया, कि एक मनस का विकास हो रहा है।

इस विकास में एक नई बात उन्होंने जोड़ी, जो बिलकुल उनकी थी और बिलकुल नई है और इसी कारण बिलकुल गलत है। मौलिक बातें सड़ जाती हैं, जड़ हो जाती हैं--अक्सर। क्योंकि एक ही व्यक्ति उनको खोजता है। परंपरागत बातें सड़ जाती हैं, जड़ हो जाती हैं, लेकिन अक्सर गलत नहीं होतीं। क्योंकि करोड़ों लोग उन्हें खोजते हैं। अरविंद का नवीनतम जो खयाल है, जिसकी वजह से उनकी प्रतिष्ठा हुई, वह है--परमात्म-चेतना का अवतरण।

सदा ऐसा ही सोचा गया है कि व्यक्ति उठेगा ऊपर और परमात्मा से मिलेगा। एक ऊर्ध्वगमन होगा। अरविंद कहते हैं, परमात्मा उतरेगा और व्यक्ति से मिलेगा। एक तरह से सोचने पर ये भी एक सिक्के के दो पहलू हैं। असल में, सत्य बहुत बीच में है। और वह सत्य है कि मिलन वहां होता है, जहां हम भी कुछ चले होते हैं और परमात्मा भी कुछ चला होता है। मिलन तो वहीं होता है। हम भी चले होते हैं, वह भी चला होता है। लेकिन पुरानी धारणा हमारे चलने पर जोर देती थी। उसका कारण था। क्योंकि परमात्मा का चलना तो सुनिश्चित है, हमारा चलना ही सुनिश्चित नहीं है। वह तो चलेगा ही, इसलिए उसको छोड़ा जा सकता है, हिसाब के बाहर रखा जा सकता है। हमारे चलने भर की बात है। हम अपने चार कदम को उठा लें, उसके चार कदम उठने ही वाले हैं। इसलिए उसको छोड़ दिया था, खयाल के बाहर रखा था। क्योंकि उसके चलने पर जोर देने का परिणाम कहीं हमारे चलने की कमजोरी न बन जाए।

अरविंद ने दूसरे पहलू से पकड़ा और कहना शुरू किया कि परमात्मा उतरेगा। इसका प्रभाव पड़ा, क्योंकि जो चलने के लिए बिलकुल उत्सुक नहीं थे, उन्होंने कहा यह बड़ी हृदय की बात है। यह लगती है, जंचती है। इसलिए हिंदुस्तान में अरविंद की तरफ जितने लोग दौड़े पिछले वर्षों में, उतना किसी की तरफ नहीं दौड़े। उसका कुल कारण इतना था कि जो भी और गहरे अर्थों में नहीं दौड़ सकते थे, वह पांडिचेरी की तरफ दौड़ने लगे। उन्हें लगा कि यह सस्ता मामला है। पांडिचेरी तो पहुंचा जा सकता है, और उसके बाद परमात्मा उतरेगा, उसके बाद हमें कुछ...परमात्मा के उतरने की बात सच है, लेकिन हमारे चढ़े बिना वह कभी नहीं उतरता। और इसमें एक दूसरी बात ध्यान रखने की है कि चढ़ने के मामले में, मैं चढूंगा तो मुझ पर उतरेगा, आप चढ़ेंगे तो आप पर उतरेगा, लेकिन उतरने के मामले में कैसे तय होगा कि किस पर उतरे? सब पर उतर जाएगा। क्योंकि परमात्मा तो सब पर उतर जाएगा। फिर कोई हिसाब करेगा, चुनाव करेगा कि इस पर उतरूं, इस पर न उतरूं!

तो पांडिचेरी में एक खयाल पैदा हुआ कि अरविंद कोशिश करेंगे और सब पर उतर जाएगा। यह खयाल पैदा हुआ, जो कि लोभ बना--जो अभी भी लोभ जारी है। खयाल यह हुआ कि जब एक पर उतर जाएगा, जैसे कि गंगा उतरी भगीरथ पर। तो फिर भगीरथ पर थोड़े ही उतरी, उतर गई सबके लिए, बह गई। तो भगीरथ का काम अरविंद कर देंगे। और एक दफा परमात्मा उतर गया, तो फिर सब पानी पिएंगे। फिर गंगा के किनारे सब बस जाएंगे।

इस भ्रम ने बड़ा उपद्रव पैदा किया। और मैं मानता हूं, यह बड़ी गलत धारणा है। व्यक्ति को जाना पड़ता है। घटना उतरने की घटती है, लेकिन व्यक्ति को तैयारी करनी पड़ती है। और सामूहिक रूप से कभी परमात्मा उतरेगा, ऐसा मुझे कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि परमात्मा की तरफ से वह उतरने को तैयार ही है। लेकिन समूह कब तैयार होगा? और समूह में आप आदमी ही हैं सिर्फ! उड़ते हुए पक्षी नहीं हैं? पौधे नहीं हैं? जंगल के जानवर नहीं हैं। ये सड़क के किनारे पत्थर नहीं हैं? परमात्मा जिस दिन उतरेगा, उस दिन पत्थर वंचित रहेगा, आपको मिल जाएगा? उस दिन पौधे वंचित रहेंगे, आपको मिल जाएगा? यह सोचना असंभव है।

इसलिए अरविंद की जो धारणा उतरने की है, उसने हमारे लोभ को तो बड़ा सुख दिया, लेकिन वह सार्थक नहीं है। इसलिए पांडिचेरी में जो प्रयोग चल रहा है, उससे ज्यादा व्यर्थ प्रयोग मनुष्यजाति के इतिहास में कभी नहीं चला। एकदम व्यर्थ प्रयोग चल रहा है। लेकिन वह हमारे लोभ के अनुकूल पड़ता है, इसलिए चल सकता है।

अरविंद को सोचते वक्त, दूसरा नाम स्मरण दिलाया है रमण का। रमण अरविंद से ठीक उलटे आदमी हैं। अरविंद बड़े पंडित हैं, तो रमण का पांडित्य से कभी कोई नाता नहीं रहा। अरविंद बड़े जानकार हैं, तो रमण से गैर-जानकार आदमी खोजना मुश्किल है। अरविंद सब जानते मालूम पड़ते हैं, लेकिन रमण अज्ञानी होने की तैयारी में हैं। रमण कुछ जानते हुए नहीं मालूम पड़ते। इसलिए रमण की जिंदगी में जो संभव हो पाया, वह अरविंद की जिंदगी में संभव नहीं हो सका। अरविंद जानकार बने रहे और रमण जान गए। रमण की जिंदगी में घटना घटी है। लेकिन चूंकि वे जानकार बिलकुल नहीं हैं, इसलिए उनके वक्तव्य एक ऐसे आदमी के हैं जो ज्ञान की भाषा जानता ही नहीं है। ज्ञान मिल गया है, ज्ञान की भाषा नहीं जानता। इसलिए वक्तव्य की दृष्टि से वक्तव्य बड़े कमजोर हैं। तर्क की दृष्टि से बड़े दीन हैं। लेकिन अनुभव की दृष्टि से उनकी समृद्धि का कोई मुकाबला नहीं है। रमण कोई "सिस्टम' तो नहीं बना सकते, कोई व्यवस्था नहीं दे सकते। रमण के सब वक्तव्य "एटामिक' हैं, सब आणविक हैं। ज्यादा हैं भी नहीं। क्योंकि रमण के पास कहने को भी नहीं है। थोड़ा-सा कहने को है--वह जितना जाना है। और वह जो जाना है, उसको कहने के लिए भी बहुत शब्द उनके पास नहीं हैं। थोड़े-से शब्द हैं, जिनमें वे उसको कहे चले जाते हैं। इसलिए रमण को तो एक पन्ने पर इकट्ठा किया जा सकता है। एक पन्ना भी बड़ा पड़ सकता है, एक पोस्टकार्ड भी काफी है। लेकिन अगर अरविंद को इकट्ठा करने चलो, तो एक "लाइब्रेरी' भी छोटी है। और ऐसा नहीं है कि अरविंद जो कह सकते थे वे सब कह गए हैं, अभी उनको कहने के लिए दस-पांच जन्म लेना पड़े। अभी उनके पास कहने को बहुत था।

इसका यह मतलब नहीं है कि उनके पास कहने को बहुत था इसलिए उन्होंने नहीं जाना। नहीं, इससे कोई बाधा नहीं पड़ती। बुद्ध के पास कहने को बहुत है। बुद्ध ने बहुत कहा। बुद्ध रमण जैसे आदमी हैं, अनुभव की तरह; और जानकारी की तरह वे अरविंद जैसे आदमी हैं। इसलिए कहने का उपाय उनके पास बहुत है। महावीर ने बहुत कम कहा है। महावीर का ज्यादा समय मौन में बीता। बहुत कम कहा है। बहुत थोड़े वक्तव्य हैं महावीर के। और जो वक्तव्य भी हैं, बहुत संक्षिप्त हैं। रमण जैसा मामला दिखता है। महावीर ने बहुत नहीं कहा। दिगंबरों के पास तो कोई ग्रंथ ही नहीं है महावीर का। श्वेतांबरो के पास ग्रंथ हैं, वे भी महावीर के पांच सौ वर्ष बाद इकट्ठे किए गए हैं।

ओशो रजनीश



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