श्री कृष्ण स्मृति भाग 103

 "आप रमण को बुद्ध तक इतनी दूर ले जाते हैं। उन्हें कृष्णमूर्ति के निकट रखकर समझाएं जरा।'


दूर और पास नहीं है कुछ। कृष्णमूर्ति ठीक रमण जैसे व्यक्ति हैं। रमण से और बुद्ध, अरविंद इनको मैंने क्यों तौला, उसका कुछ कारण है। कृष्णमूर्ति ठीक रमण जैसे अनुभव के व्यक्ति हैं, लेकिन अरविंद जैसी जानकारी कृष्णमूर्ति की भी नहीं है। हां, रमण से ज्यादा मुखर हैं। रमण से ज्यादा तर्कयुक्त हैं। लेकिन कृष्णमूर्ति के तर्क और अरविंद के तर्क में बड़ा फर्क है। अरविंद एक तार्किक हैं, कृष्णमूर्ति तार्किक नहीं हैं। और अगर तर्क का उपयोग कर रहे हैं, तो पूरे वक्त तर्क को मिटाने के लिए ही कर रहे हैं। और अगर तर्क की पूरी-की-पूरी चेष्टा है, तो वह अतक्र्य में प्रवेश के लिए ही है। लेकिन जानकार बहुत नहीं हैं। इसलिए मैंने दूर का उदाहरण लिया। बुद्ध से मैंने इसलिए कहा, ताकि आपको दोनों बात खयाल में आ जाए--बुद्ध का अनुभव रमण जैसा और जानकारी अरविंद जैसी। कृष्णमूर्ति का अनुभव रमण जैसा, जानकारी अरविंद जैसी नहीं।

दूसरा फर्क है। रमण बहुत मौन हैं, कृष्णमूर्ति मुखर हैं। इसीलिए कृष्णमूर्ति के भी वक्तव्यों को अगर छांटा जाए तो बहुत ज्यादा नहीं हैं। इसलिए जो कृष्णमूर्ति को सुनते हैं वे अनुभव करेंगे कि वह एक ही चीज को निरंतर चालीस वर्षों से दोहराए चले जा रहे हैं। एक ही बात को दोहराए चले जा रहे हैं। एक पोस्टकार्ड पर उनके वक्तव्य भी इकट्ठे हो सकते हैं। लेकिन वह कहने में ज्यादा विस्तार लेते हैं, तर्क का उपयोग करते हैं। रमण विस्तार भी नहीं लेते। इसको ऐसा समझें कि कृष्णमूर्ति के वक्तव्य तो "एटामिक' हैं, लेकिन वक्तव्यों के आसपास तर्क का, विचार का, चिंतन का जाल भी खड़ा करते हैं। रमण के वक्तव्य निपट "एटामिक' हैं, उनके आसपास कोई वक्तव्य का, तर्क का, समझाने का जाल भी नहीं है। रमण के वक्तव्य उपनिषदों जैसे हैं, सीधे "स्टेटमेंट्स' हैं। हां, उपनिषद कह देते हैं, ब्रह्म है। फिर वह यह भी फिक्र नहीं करता कि क्यों है, है कि नहीं, कैसे है, क्या तर्क है, क्यों है, यह कुछ नहीं। सीधे, "बेयर स्टेटमेंट्स' हैं। ऐसा, कि है। रमण उपनिषद के ऋषियों से जोड़े जा सकते हैं।

ओशो रजनीश



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