श्री कृष्ण स्मृति भाग 104

 "रमण के अजातवाद पर कुछ कहें।'


हां, रमण या रमण जैसे और लोग भी कहते हैं, जो है वह कभी जन्मा नहीं, अजात है; यह दूसरा पहलू है एक और बात का, जिसे हम निरंतर कहते हैं लेकिन खयाल में नहीं लेते। सैकड़ों वक्तव्य हैं इस बात के कि जो है वह मरेगा नहीं, अमृत है। अमर्त्य है। इसका दूसरा पहलू है। क्योंकि अमर्त्य वही हो सकता है जो अज्ञात हो, जो जन्मा न हो। तो रमण कहते हैं, जो है, वह जन्मा नहीं है। इसीलिए तो जो है, वह मरेगा नहीं। आप कब जन्मे, आपको पता है?

यह बड़े मजे की बात है, आप कब जन्मे, आपको पता है? आप कहेंगे कि नहीं, पता तो नहीं है। हां, जन्म के लेखे-जोखे हैं, जो दूसरों ने हमें बताए। अगर मुझे कोई न बताए कि मैं जन्मा, तो क्या मुझे पता चल सकेगा कि मैं जन्मा? यह "इन्फर्मेशन' है, जो दूसरों ने मुझे दी है। दूसरे मुझे कहते हैं कि फलां-फलां तारीख को फलां-फलां घर में जन्मा। अगर यह खबर मुझे न दी जाए तो क्या कोई भी उपाय मेरे पास है, "इंट्रेंसिक', भीतर, जिससे मैं पता लगा सकूं कि मैं कभी जन्मा? नहीं, आपके पास भीतरी कोई "एविडेंस' नहीं है कि आप जन्मे। असल में भीतर जो है, वह कभी जन्मा ही नहीं, "एविडेंस' हो कैसे सकता है? आप कहते हैं कि मैं कभी मरूंगा, लेकिन आपको मरने का कोई अनुभव है? नहीं, आप कहेंगे, दूसरों को हमने मरते देखा। लेकिन समझ लें कि एक आदमी को हम किसी को मरते न देखने दें--इसमें कोई कठिनाई नहीं है--क्या एक ऐसा आदमी जिसको हम किसी को मरते न देखने दें, कभी इस नतीजे पर पहुंच सकेगा--किसी भी कारण से, किसी भीतरी वजह से--कि मैं मरूंगा? नहीं पहुंच सकता। यह भी "आउटर "एविडेंस' है। यह भी हमने किसी और को मरते देखा है। लेकिन हमारे भीतर कोई प्रमाण नहीं है, कोई गवाही नहीं है कि हम मरेंगे। इसीलिए शायद इतने लोग मरते हैं, फिर भी हमें खयाल नहीं पैदा होता कि हम मरेंगे। हम मरते जाते हैं, सोचते हैं मर रहा होगा दूसरा कोई। बाकी चूंकि भीतरी कोई गवाही नहीं है कि मैं मरूंगा, न भीतरी कोई गवाही है कि मैं कभी जन्मा। भीतर की गवाही किस चीज की है? भीतर सिर्फ एक गवाही है कि मैं हूं, और कोई गवाही नहीं है।

तो गैर-गवाही की बातें माने जाने के लिए रमण मना करते हैं। वह कहते हैं कि जिसकी पक्की गवाही है, उतनी ही मानना काफी है। मैं हूं, इतनी गवाही है। मैं भी वह कहता हूं कि मैं हूं, उतनी गवाही है। और अगर थोड़े और भीतर प्रवेश करेंगे, तो पाएंगे, मैं भी  नहीं हूं। हूं, इतनी ही गवाही है।

ओशो रजनीश



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