श्री कृष्ण स्मृति भाग 95

 "आपने कहा है कि श्रीकृष्ण के मार्ग में कोई साधना नहीं है। केवल "सेल्फ रिमेंबरिंग', पुनरात्मस्मरण है। लेकिन, आप सात शरीरों की साधना की बात करते हैं। तो सात शरीरों के संदर्भ में कृष्ण की साधना की रूपरेखा क्या होगी, कृपया इसे स्पष्ट करें।'


कृष्ण के विचार-दर्शन में साधना की कोई जगह ही नहीं है। इसलिए सात शरीरों का भी कोई उपाय नहीं है। साधना के मार्ग पर जो मील के पत्थर मिलते हैं, वे उपासना के मार्ग पर नहीं मिलते हैं। साधना मनुष्य को जिस भांति विभाजित करती है, उस तरह उपासना नहीं करती। साधना सीढ़ियां बनाती है, इसलिए आदमी के व्यक्तित्व को सात हिस्सों में तोड़ती है। फिर एक-एक सीढ़ी चढ़ने की व्यवस्था करती है। लेकिन उपासना आदमी के व्यक्तित्व को तोड़ती ही नहीं। कोई खंड नहीं बनाती। मनुष्य का जैसा अखंड व्यक्तित्व है, उस पूरे को ही उपासना में लीन कर देती है।


इसलिए साधकों ने तो बहुत-सी सीढ़ियां बनाई हैं, बहुत-से मील के पत्थर लगाए हैं, बहुत-बहुत विभाजन किए हैं--सप्त शरीरों में विभाजन किया है मनुष्य के व्यक्तित्व का, सात चक्रों में विभाजन किया है मनुष्य के व्यक्तित्व का, तीन हिस्सों में विभाजन किया है मनुष्य के व्यक्तित्व का; अलग-अलग साधकों ने मनुष्य के व्यक्तित्व को अलग-अलग सीढ़ियों में बांटकर साधना की है, लेकिन उपासना के जगत में कोई विभाजन नहीं है। वहां मनुष्य जैसा है, उस पूरे ही मनुष्य को सिर्फ स्मरण करना है। स्मरण खंड-खंड नहीं होता, साधना खंड-खंड हो सकती है। किसी आदमी को स्मरण ऐसा नहीं आता कि मैं थोड़ा परमात्मा हूं और थोड़ा नहीं हूं। जब आता है तो पूरा आता है, अन्यथा नहीं आता है।

स्मरण की प्रक्रिया ही अलग है। स्मरण की प्रक्रिया "सडन' है, "ग्रेजुअल' नहीं है। स्मरण पूरा-का-पूरा एक ही छलांग में घटित होता है। स्मरण एक विस्फोट है। साधना का एक क्रम है, स्मरण का कोई क्रम नहीं है। जैसे उदाहरण के लिए ऐसा समझें--आपको किसी का नाम पक्की तरह मालूम है। वक्त पड़ा है और याद नहीं आ रहा है। और आप कहते हैं ओंठ पर रखा है, जीभ पर रखा है। बड़े मजे की बात आप कहते हैं। कहते हैं, जीभ पर रखा है और याद नहीं आ रहा है। असल में दोनों बातें आपको याद आ रही हैं कि मुझे याद भी है और याद नहीं भी आ रहा है। बड़ी असमंजस की स्थिति है। आपको मालूम है कि मालूम है, आपको भलीभांति पता है कि पता है, लेकिन याद नहीं आ रहा है। विस्मरण का मतलब ही यही है कि जो याद है और याद नहीं आ रहा है। मन के किसी गहरे तल को पता है कि याद है, लेकिन मन के ऊपरी तल तक खबर नहीं पहुंच पा रही। बीच में सेतु नहीं बन पा रहा। गहरा मन कहता है कि मालूम है, लेकिन उथला मन कहता है कि मुझ तक खबर नहीं आ रही। इसलिए हम कहते हैं कि जीभ पर रखा है लेकिन याद नहीं आ रहा है। दोनों बातें एकसाथ याद आ रही हैं। मालूम है, यह भी याद आ रहा है, याद नहीं आ रहा है, यह भी मालूम हो रहा है।

फिर आप क्या करते हैं?

फिर आप बड़ी कोशिश करते हैं। फिर हजार उपाय करते हैं। सिर पर बल दे देते हैं, मुट्ठियां कस लेते हैं, सब तरह से खोजते हैं, बीनते हैं, और जितना खोजते हैं उतना ही पाते हैं कि याद नहीं आ रहा है। जितना खोजते हैं, उतना ही पाते हैं कि याद आना मुश्किल हुआ जा रहा है। क्यों? क्योंकि जितना आप खोजते हैं उतना ही आप "टेंस' और तनाव से भर जाते हैं। और जितना तनाव से भर जाते हैं उतना ही आपके गहरे मन और आपका संबंध टूट जाता है। तनाव से भरा हुआ मन खंडित हो जाता है, शांत मन इकट्ठा हो जाता है। जितना आप कोशिश करते हैं कि याद करूं, याद करूं, उतना आप मुश्किल में पड़ते हैं। क्योंकि जो आदमी यह कह रहा है कि मैं याद करूं, वह साथ ही यह भी स्मरण में रखे हुए है कि मुझे याद नहीं आ रहा है। ये दोहरे सुझाव उसको एकसाथ मिल रहे हैं। बार-बार कह रहा है कि याद करूं और बार-बार जान रहा है कि याद नहीं आ रहा है, तो उसका आत्मविश्वास कम होता जा रहा है। और मन तनता जा रहा है। वह याद नहीं कर पाएगा। फिर उस आदमी ने कहा कि जाने दो। नहीं आता याद तो जाने दो। वह आदमी बैठकर सिगरेट पीने लगा है, या बगिया में काम करने लगा है, या रेडियो खोलकर सुनने लगा है, या अखबार पढ़ने लगा, और अचानक याद आ गया है। और जब ऐसा याद आता है, तो कभी आधा याद आता है? बस पूरा याद आ जाता है।

क्यों? इस आकस्मिक अत्तनाव की हालत में, "रिलेक्सेशन' की हालत में क्यों याद आ गया? तनाव मिट गया है, आपने याद करने की बात छोड़ दी, दोनों मन जो टूटे थे--याद करने वाला और जिसे याद था, वे दोनों लड़ रहे थे; याद करने वाला कहता था, याद आना चाहिए और तना हुआ था, वही बाधा थी, वही तनाव था। वह छूट गया। आप बगिया में काम कर रहे हैं, या अखबार पढ़ रहे हैं, या रेडियो सुनने लगे हैं और अचानक याद आ गया है। जो कोशिश से याद नहीं आया था, वह अचानक याद आ गया। जो प्रयास से नहीं खोजा जा सका था, वह अप्रयास में उपलब्ध हो गया है। लेकिन जब यह याद आती है तो अधूरी नहीं आती, बस पूरा ही आ जाता है। क्योंकि पूरा ही आपको मालूम है।

यह मैंने उदाहरण के लिए कहा। यह हमारी सामान्य स्मृति की बात है। इस स्मृति में मन के दो हिस्से काम करते हैं। जिसको हम "कांशस माइंड' कहते हैं, वह; जिसको हम "अनकांशस माइंड' कहते हैं, वह--हमारा चेतन मन और हमारा अचेतन मन। इसे हम ऐसा समझ ले सकते हैं कि चेतन मन हमारे मन का वह हिस्सा है, जिससे हम चौबीस घंटे काम लेते हैं। अचेतन मन हमारे मन का वह हिस्सा है, जिससे हमें कभी-कभी काम लेना पड़ता है, चौबीस घंटे काम नहीं लेते। चेतन मन हमारा प्रकाशित मन है, अचेतन मन हमारा अंधकार में डूबा मन है। यह जो स्मृति का मैंने उदाहरण लिया, यह अचेतन में दबी है और चेतन याद करने की कोशिश कर रहा है। चेतन अचेतन के खिलाफ लड़ रहा है। जब तक लड़ेगा तब तक याद नहीं आएगा। जैसे ही लड़ाई छोड़ेगा, दोनों मिल जाएंगे और याद आ जाएगा। और जो अचेतन के द्वार पर खड़ा था, बिलकुल चेतन में प्रवेश करने को, उसी को आप कह रहे थे कि जीभ पर रखा है।

परमात्मा की स्मृति, या आत्मस्मृति, या "सेल्फ रिमेंबरिंग' और गहरी बात है। वह अचेतन में नहीं दबा है। उसके नीचे एक और अचेतन मन है, जिसको हम "कलेक्टिव अनकांशस' कहें--हम सबका सामूहिक अचेतन मन। इसे ऐसा समझें कि चेतन मन है हमारा ऊपर का प्रकाशित हिस्सा, उसके नीचे दबा हुआ हमारा अचेतन मन है--हमारा ही व्यक्तिगत अंधेरे में दबा हिस्सा--उसके नीचे हम सबका समूह-मन है, वह भी अंधेरे में दबा। और उसके भी नीचे "कॉज्म?िक अनकांशस' है, जो समस्त जगत, समस्त जीवन, समस्तता का अंधकार में डूबा हुआ मन है। परमात्मा की स्मृति उस "कॉज्म?िक अनकांशस' में, समष्टि-अचेतन में दबी पड़ी है। तो स्मरण का कुल मतलब इतना ही है कि हम अपने भीतर इतने एक हो जाएं कि न केवल अपने अचेतन से जुड़ जाएं, समूह-अचेतन से जुड़ जाएं बल्कि उसके नीचे समष्टि-अचेतन से जुड़ जाएं।

अब जैसे उदाहरण के लिए, अब आप ध्यान में बैठते हैं, तो जब ध्यान की गहराई आती है, तो पहले तो आप व्यक्ति-अचेतन में उतरते हैं। आप रोने लगते हैं, हंसने लगते हैं; कोई रोता है, कोई हंसता है, कोई नाचता है, कोई डोलता है, यह आपके व्यक्ति-अचेतन में दबी हुई क्रियाएं प्रकट होती हैं। लेकिन दस मिनट पूरे होते-होते आप व्यक्ति नहीं रह जाते, आप एक "कलेक्टिविटी' हो जाते हैं। आप अलग-अलग नहीं रह जाते। जो गहरे उतर जाते हैं, वे समूह-अचेतन में उतर जाते हैं। फिर उस क्षण में उन्हें ऐसा नहीं लगता कि मैं नाच रहा हूं, उस वक्त ऐसा ही लगता है कि नाच चल रहा है और मैं एक हिस्सा हो गया हूं। उस वक्त उन्हें ऐसा नहीं लगता है कि मैं हंस रहा हूं, उस वक्त ऐसा ही लगता है कि हंसी फूट रही है और मैं भी भागीदार हूं। उस वक्त ऐसा नहीं लगता है कि मैं हूं, बल्कि ऐसा लगता है कि सब कुछ नाच रहा है, सारा जगत नाच रहा है। चांदत्तारे नाच रहे हैं, पौधे-पक्षी नाच रहे हैं, आसपास जो भी है, कण-कण, वह सभी नाच रहा है। उस नाचने के हम एक हिस्से हो गए हैं। तब आप "कलेक्टिव अनकांशस' में उतर गए। तब आप समूह-अचेतन में उतर गए।

उसके भी नीचे दबा हुआ "कॉज्म?िक अनकांशस' है। उसमें जिस दिन आप उतर जाएंगे--यह "कलेक्टिव' से ही उतरेंगे; यह समूह-चित्त जब और-और गहरा होता जाएगा तब आपको यह भी पता नहीं चलेगा कि सब नाच रहे हैं और मैं एक हिस्सा हूं, आपको यह भी पता नहीं चलेगा कि मैं हिस्सा हूं, आपको यही पता चलेगा कि सब और मैं एक ही हूं। हिस्सा भी नहीं हूं। "टोटल' का मैं एक भाग नहीं हूं, मैं ही "टोटल' हूं। जिस क्षण ऐसी प्रतीति होगी उसी क्षण "कॉज्म?िक अनकांशस' से तीर की तरह कोई स्मरण आपके चेतन मन तक उठकर आ जाता है। उस वक्त आपको स्मरण होता है कि मैंने तो जाना जो मुझे पता ही था कि मैं कौन हूं। मैं ब्रह्म हूं। अहं ब्रह्मास्मि का बोध उस क्षण में आपके चेतन तक फैल जाता है। यह जो स्मरण की प्रक्रिया है, यह मैंने चार हिस्सों में बांटी आपको समझाने के लिए। कृष्ण इसको बांटते ही नहीं। यह समझाने के लिए बांटा कि आपको कठिन होगा। ये अलग-अलग चार चीजें नहीं हैं, यह एक ही चीज का फैलाव है, गहरे और गहरे, और गहरे। और जितना गहरा होता है, उतना हम खंड को अलग नाम दे रहे हैं।

हमारे बहुत गहरे में हमें पता ही है कि हम परमात्मा हैं। हमें परमात्मा होना नहीं है, सिर्फ "डिस्कवर' करना है, सिर्फ आविष्कार करना है, उघाड?ना है। ऋषि कहते हैं उपनिषद में कि स्वर्ण-पात्र से ढंका है जो सत्य, तू उसे उघाड़ दे। वह जो ढंका है उसे तू उघाड़ दे। परमात्मा होना हमारी उपलब्धि नहीं है, सिर्फ उघाड़ना है, "अनकवर' होना है। कुछ जो ढंका है, वह उघड़ जाए। किससे ढंका है? हमारी ही विस्मृति से ढंका है। हम अपने मन के बिलकुल अग्रिम भाग में जी रहे हैं, जैसे कोई बड़े भवन में रहता हो, और अपनी दहलान में जीता हो। और धीरे-धीरे दहलान में ही पैदा हुआ हो, दहलान में ही बड़ा हुआ हो, दहलान में ही जीआ हो और भूल ही गया हो, उसे पता ही न हो कि उसका बड़ा भवन भी है। उसे पता ही न हो, वह दहलान में जी लेता हो, सो जाता हो, काम करता हो, खाता हो, पीता हो और उसे याद ही न हो कि एक बड़ा भवन भी है उस दहलान से जुड़ा हुआ। असल में कोई दहलान अकेली नहीं होती। कभी देखी है कोई दहलान अकेली? दहलान किसी बड़े भवन का हिस्सा ही होती है। उस बड़े भवन का हमें कोई पता नहीं है। हम अपने चेतन मन में ही जी रहे हैं, वह हमारी दहलान है। वह हमारा सिर्फ बाहर का हिस्सा है जहां छपरी पड़ती है। इससे ज्यादा नहीं है। लेकिन हमें कोई पता नहीं भीतर का। उस भीतर का भी हमारे बहुत गहरे में स्मरण है पर उस भीतर की अपनी गहराई में भी हम नहीं उतरे हैं। इस भीतर की गहराई में उतर जाना खंड में नहीं होगा। चर्चा और समझाना खंड में होगा।

साधना के मार्ग से जो चलते हैं, वे एक-एक खंड को साधने की कोशिश करते हैं। कृष्ण कहते ही इतना हैं कि तुम परमात्मा हो, इसे स्मरण करना है। इसलिए उपनिषद बार-बार कहते हैं, स्मरण करो, स्मरण करो। सिर्फ "रिमेंबर' करना है कि कौन हैं हम। यह हम भूल गए हैं, यह हमने खो नहीं दिया है। यह कुछ ऐसा भी नहीं है कि हमारा कोई भविष्य है, जो हमें होना है। सिर्फ विस्मरण है। बहुत बात बदल जाती है। साधना में सिर्फ विस्मरण नहीं है, साधना के खयाल में कोई चीज खोजी गई है, या कोई चीज अभी हुई ही नहीं है जो होने वाली है। या साधना के क्रम में कुछ चीज गलत जुड़ गई है जिसे काटना होगा, अलग करना होगा। स्मरण की प्रक्रिया में न कुछ काटना है, न कुछ अलग करना है, न कुछ गलत जुड़ गया है, न हमें कुछ होना है, न हम अन्यथा हो गए हैं, हम जो हैं वह हैं, सिर्फ विस्मरण है। बस विस्मरण के अतिरिक्त और कोई पर्दा नहीं है।

कृष्ण का सारा-का-सारा आधार उपासना का है और उपासना का सारा आधार स्मरण का है। लेकिन भूल गए उपासक स्मरण को। उसकी जगह उन्होंने सुमिरन शुरू कर दिया। स्मरण को भूल गए, अब वे सुमिरन कर रहे हैं! बैठे हैं और राम-राम जप रहे हैं। राम-राम जपने से याद न आएगा कि मैं राम हूं। स्मरण शब्द धीरे-धीरे सुमिरन बन गया। स्मृति शब्द धीरे-धीरे सुरति बन गया। और उस शब्द के दूसरे ही "कनोटेशन' और दूसरे ही अर्थ हो गए। एक आदमी बैठकर अगर यह भी दोहराता रहे कि मैं परमात्मा हूं, मैं परमात्मा हूं, तो भी कोई हल न होगा। यह दोहराने से हल न होगा। इसके दोहराने से, "रिपीटीशन' से कोई वास्ता नहीं है। इससे भ्रम भी पैदा हो सकता है कि वह आदमी नीचे तो उतर ही न पाए और चेतन मन में ही समझने लगे कि मैं परमात्मा हूं और भीतर के तलों का उसे कोई बोध ही न हो।

इसलिए स्मरण की क्या होगी प्रक्रिया? क्या होगा मार्ग? क्या होगा द्वार? मेरे देखे अगर आप शांत और शून्य सिर्फ बैठ जाएं, कुछ न करें--आपका कुछ भी करना बाधा बनेगा। असल में करने से हम वह पा सकते हैं जो हम नहीं हैं। करने से वह मिल सकता है जो हमारे पास नहीं है। इसलिए स्मरण का बहुत गहरा अर्थ तो "टोटल इनएक्टिविटी' है, अकर्म है। इसलिए कृष्ण बहुत जोर देते हैं अकर्म पर। वह निरंतर कहे जाते हैं, अकर्म। गहरे में अकर्म, "नो एक्टिविटी'। जैसा मैंने आपसे कहा कि छोटी-सी चीज भी भूल जाते हैं, तो जब तक आप "एक्टिवली' उसको याद करने की कोशिश करते हैं, नहीं कर पाते हैं, लेकिन जब आप उस हिस्से को छोड़ देते हैं और उस हिस्से में "इनएक्टिव' हो जाते हैं, अकर्म में हो जाते हैं, तब वह स्मरण आ जाता है। अगर हम "टोटल इनएक्टिविटी' में हो जाएं तो वह जो कॉज्म?िक अनकांशस' में है, वह जो ब्रह्मांड-अचेतन में पड़ा है, वह एकदम तीर की तरह उठता है। जैसे बीज फूटता है अंकुर की तरह, ऐसे ही हमारे चित्त के किसी गहरे से बीज टूटता है और एक अंकुर उठकर हमारे चेतन मन के प्रकाश तक आ जाता है, और हम जानते हैं कि हम कौन हैं। अकर्म है सूत्र। साधना में सदा कर्म है सूत्र। साधना में सदा क्रिया है मार्ग। उपासना में सदा अक्रिया है द्वार, अकर्म है मार्ग।

कृष्ण के इस अकर्म को थोड़ा ठीक से समझ लेना अच्छा होगा। क्योंकि मैं मानता हूं कि इसे ठीक से नहीं समझा जा सका। इसे समझना बहुत मुश्किल था। क्योंकि जिन लोगों ने कृष्ण पर टीकाएं लिखी हैं और जिन लोगों ने कृष्ण की व्याख्या की है, उनकी किसी की भी पकड़ में अकर्म नहीं बैठ सका। या तो अकर्म का मतलब उन्होंने समझा कि संसार छोड़कर भाग जाओ। लेकिन छोड़कर भागना एक कर्म है। छोड़ना एक कर्म है, एक कृत्य है। अकर्म का निरंतर यही मतलब समझा गया कि तुम कुछ भी मत करो। दुकान मत करो, काम मत करो, गृहस्थी मत करो, प्रेम मत करो, भाग जाओ सब छोड़कर। सिर्फ भागना करो। सिर्फ त्यागना करो। लेकिन त्याग उतना ही कर्म है, जितना भोग कर्म है। तो कृष्ण को नहीं समझा जा सका। अकर्म का मतलब छोड़ना, भागना, त्यागना हो गया। हिंदुस्तान की लंबी परंपरा त्याग रही है, छोड़ रही है, भाग रही है। और कोई गौर से नहीं देखता कि कृष्ण बिलकुल भागे हुए नहीं हैं। कभी-कभी हैरानी होती है कि एक लंबी परंपरा भी अंधी हो सकती है। कोई यह नहीं देख रहा है कि जो आदमी अकर्म की बात कर रहा है, वह गहन कर्म में खड़ा हुआ है। इसलिए भागना उसका अर्थ हो नहीं सकता।

कृष्ण तीन शब्दों का प्रयोग करते हैं--अकर्म, कर्म और विकर्म। कर्म वे उसे कहते हैं, सिर्फ करने को ही कर्म नहीं कहते। अगर करने को ही कर्म कहें, तब तो अकर्म में कोई जा ही नहीं सकता। फिर तो अकर्म हो ही नहीं सकता। कर्म को कृष्ण ऐसा करना कहते हैं जिसमें कर्ता का भाव है। जिसमें करने वाले को यह खयाल है कि मैं कर रहा हूं। मैं कर्ता हूं। "इगोसेंट्रिक' कर्म को वे कर्म कहते हैं। ऐसे कर्म को, जिसमें कर्ता मौजूद है। जिसमें कर्ता यह खयाल करके ही कर रहा है कि करने वाला मैं हूं। जब तक मैं करने वाला हूं, तब तक हम जो भी करेंगे वह कर्म है। अगर मैं संन्यास ले रहा हूं, तो संन्यास एक कर्म हो गया। अगर मैं त्याग कर रहा हूं, तो त्याग एक कर्म हो गया।

अकर्म का मतलब ठीक उलटा है। अकर्म का मतलब है ऐसा कर्म, जिसमें कर्ता नहीं है। अकर्म का अर्थ, ऐसा कर्म जिसमें कर्ता नहीं है। जिसमें मैं कर रहा हूं, ऐसा कोई बिंदु नहीं है। ऐसा कोई केंद्र नहीं है जहां से यह भाव उठता है कि मैं कर रहा हूं। अगर मैं कर रहा हूं, यह खो जाए, तो सभी कर्म अकर्म है। कर्ता खो जाए तो सभी कर्म अकर्म है। इसलिए कृष्ण का कोई कर्म कर्म नहीं है, सभी कर्म अकर्म है।

कर्म और अकर्म के बीच में विकर्म की जगह है। विकर्म का अर्थ है, विशेष कर्म। अकर्म तो कर्म ही नहीं है, कर्म कर्म है; विकर्म का अर्थ है, विशेष कर्म। इस शब्द को भी ठीक से समझ लेना चाहिए, दोनों के बीच में खड़ा है।

विशेष कर्म किसे कहते हैं कृष्ण? जहां न कर्ता है, और न कर्म। फिर भी चीजें तो होंगी। फिर भी चीजें तो होंगी ही। आदमी श्वास तो लेगा ही। न कर्म है, न कर्ता है। श्वास तो लेगा ही। श्वास कर्म तो है ही। खून तो गति करेगा ही शरीर में। भोजन तो पचेगा ही। ये कहां पड़ेंगे? ये विकर्म हैं। ये मध्य में हैं। यहां न कर्ता है, न कर्म है। साधारण मनुष्य कर्म में है, संन्यासी अकर्म में है, परमात्मा विकर्म में है। वहां न कोई कर्ता है, न कोई कर्म है। वहां चीजें ऐसी ही हो रही हैं, जैसे श्वास चलती है। वहां चीजें बस हो रही हैं। "जस्ट हैपनिंग'।

आदमी के जीवन में भी ऐसा थोड़ा कुछ है। वह सब विकर्म है। लेकिन वह परमात्मा के द्वारा ही किया जा रहा है। आप श्वास ले रहे हैं? आप श्वास लेते होंगे, फिर कभी मर न सकेंगे। मौत खड़ी हो जाएगी और आप श्वास लिए चले जाएंगे। या जरा श्वास को रोक कर देखें, तो पता चलेगा कि नहीं रुकती है। होकर रहेगी। जरा श्वास को बाहर ठहरा दें, तो पता चलेगा नहीं मानती है, भीतर जाकर रहेगी। न हम कर रहे हैं, न हम कर्ता हैं, श्वास के मामले में। जीवन की बहुत क्रियायें ऐसी ही हैं। अकर्म में वह आदमी प्रवेश कर जाता है जो विकर्म के इस रहस्य को समझ लेता है। फिर वह कहता है, फिर नाहक मैं क्यों कर्ता बनूं! जब जीवन का सभी महत्वपूर्ण हो रहा है, तो मैं क्यों बोझ लूं? वह बड़ा होशियार आदमी है, वह "वाइज़ मैन' है।

वह इस तरह का आदमी है कि मैंने सुना है कि एक आदमी ट्रेन में सवार हुआ और अपने पेटी-बिस्तर को अपने सिर पर लेकर बैठ गया। पास-पड़ोस के यात्रियों ने उससे कहा कि यह पेटी-बिस्तर सिर पर क्यों लिए हो? इनको नीचे रख दो। उस आदमी ने कहा, ट्रेन पर बहुत वजन पड़ेगा। तो यह सोचकर कि मैं अपने सिर पर रख लूं, थोड़ा वजन मैं भी बंटा लूं। यात्री बहुत हैरान हुए। उन यात्रियों ने कहा, तुम पागल तो नहीं हो? क्योंकि तुम अपने सिर पर रखोगे तो भी ट्रेन पर वजन तो पड़ता ही रहेगा। ट्रेन पर वजन पड़ेगा ही और तुम पर नाहक पड़ेगा। तो वह आदमी हंसने लगा। और उस आदमी ने कहा कि मैं तो समझता था तुम सब संसारी हो, लेकिन तुम संन्यासी मालूम पड़ते हो। मैं तो तुम्हें देखकर यह सिर पर रखे था।

वह आदमी एक संन्यासी था। उसने कहा, मैं तो तुम्हें देखकर ही यह सिर पर रखे था, लेकिन तुम भी हंसते हो? पूरी जिंदगी में तुमने वजन कहां रखा है? अपने सिर पर रखा है, या परमात्मा पर छोड़ दिया है? क्योंकि तुम अपने सिर पर भी रखो तो भी परमात्मा पर ही पड़ता है। यह तुम अपने सिर पर क्यों रखे हो? तो उसने कहा कि मैं तो समझा कि यहां संसारी बैठे हैं, इसलिए इनके ढंग से बैठना चाहिए। मुझे क्या पता था कि यहां संन्यासी बैठे हैं! उसने न केवल नीचे रखा वजन, बल्कि वजन के ऊपर बैठ गया। उसने कहा कि अब मैं अपनी ठीक स्थिति में बैठ सकता हूं। यह मेरा ढंग है। लेकिन सोचकर कि तुम सबको अजीब न लगे।

जो विकर्म को समझ लेगा, वह अकर्म में उतर जाएगा। कर्म हमारी स्थिति है, जैसे हम जी रहे हैं। विकर्म हमारी समझ होगी, अकर्म हमारा होना हो जाएगा।

कृष्ण की साधना, उपासना--जो हम नाम देना चाहें--उसमें गहरे में अकर्म है। आपको कुछ करना नहीं है, जो हो रहा है उसे होने देना है। आपके कर्ता को मिट जाने देना है। जिस दिन आपका कर्ता मिटा कि बीच की दीवाल टूट जाएगी और स्मरण आ जाएगा। कर्ता ही आपकी बाधा है। "द डूअर', वह जो करने वाला है, जो कह रहा है मैं कर रहा हूं, वही पर्त है स्टील की, लोहे की, जिसके नीचे पड़ी दबी है स्मृति। और जब तक आप कर्ता बने रहेंगे तब तक स्मृति नहीं लौटेगी। इसलिए बैठकर राम-राम दोहराने से नहीं होगा, बैठकर यह कहने से कि मैं परमात्मा हूं नहीं होगा, क्योंकि मैं आपसे कहता हूं कि यह आपका कर्ता ही दोहरा रहा है। यह आप ही दोहरा रहे हो, यह आपका कर्ता ही कह रहा है कि मैं हूं। कृपा करके कर्ता को जाने दें।

कैसे जाएगा कर्ता?

विकर्म को समझें। कर्म करते रहें और विकर्म को समझें। कर्म करते रहें और जीवन को समझें। "द वेरी अंडरस्टेंडिंग'। जिंदगी की समझ बताएगी कि मैं क्या कर रहा हूं--न मैं जन्मता हूं, न मैं मरता हूं, न मैं श्वास लेता हूं, न मुझसे कभी किसी ने पूछा कि आप होना चाहते हैं? न मुझसे कोई कभी पूछेगा कि अब जाने का वक्त आ गया, आप जाना चाहते हैं? न मुझसे कोई कभी पूछता कि कब मैं जवान हो जाता हूं, कब बूढ़ा हो जाता हूं। कोई मुझसे पूछ ही नहीं रहा है, मेरा कुछ होना नहीं है। मैं न रहूं तो क्या फर्क पड़ जाएगा! मैं नहीं था तो क्या फर्क था! चांदत्तारे कुछ फीके थे? फूल कुछ कम खिलते थे? पहाड़ कुछ छोटे थे? बादल कुछ गमगीन थे? सूरज कुछ परेशान था? मैं नहीं था तब सब ऐसा था। मैं जब नहीं रहूंगा तब सब ऐसा रहेगा। जैसे पानी पर खींची गई रेखा मिट जाए, ऐसे मैं मिट जाऊंगा। कहीं कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। सब ऐसा ही चलता रहेगा। सब ऐसा ही चलता रहा है। तो मैं नाहक यह "मैं' को क्यों ढोऊं? जब मेरे बिना सब ऐसा चलता रहेगा तो मैं भी मेरे बिना क्यों न चल जाऊं। जब मेरे बिना कहीं भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तो मैं ही नाहक मुझमें इस "मैं' से क्यों फर्क डालूं।

विकर्म की समझ का नाम प्रज्ञा है। विकर्म की समझ का नाम "विजडम' है। जो विकर्म को समझ लेता, वह सब समझ लेता है। तब कर्म एकदम अकर्म हो जाता है। विकर्म कीमिया है, वह बीच का द्वार है। कर्म से गुजरते वक्त पड़ेगा विकर्म, और अकर्म स्मरण आ जाता है। आपको लाना नहीं पड़ता। जिस स्मरण को आप लाएंगे, वह कर्म होगा। जो स्मरण आएगा, वही आपके कर्ता के बाहर से आएगा; कॉज्म?िक' से आएगा, ब्रह्मांड से आएगा। इसलिए वेद को हम कह सके कि यह अपौरुषेय है। इसका यह मतलब नहीं है कि जिन्होंने लिखा वे आदमी नहीं थे। इसलिए हम अपौरुषेय कह सके कि जो खबरें उन्होंने वेद में दी हैं वे उनके पुरुष से नहीं आई थीं, वे उनके पुरुष के पार से आई थीं। वे उनकी "पर्सनलिटी' के बाहर से आई थीं, वे उनके होने के आगे से आई थीं, वे "कॉज्म?िक' खबरें थीं। इसीलिए हम कह सके कि वेद जो है, वह ईश्वर का वचन है।

उसका यह मतलब नहीं है कि वेद ही ईश्वर का वचन है। जब भी किसी के भीतर से व्यक्ति के पार से कोई खबर आती है, वह ईश्वर का वचन होता है। इसलिए मुहम्मद के कुरान को कहा जा सका कि वह ईश्वर का इलहाम है, उसकी तरफ से दिया गया ज्ञान है। इसलिए जीसस कह सके कि मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह मैं नहीं कहता, वह परमात्मा ही कह रहा है। इसलिए कृष्ण तो सीधा कह सके कि मैं हूं ही नहीं, परमात्मा ही है। यह सब मैं ही करवा रहा हूं, यह खेल, यह युद्ध, यह सब मैं ही करवा रहा हूं। और तू घबड़ा मत अर्जुन, क्योंकि जिन्हें तू मारेगा, उन्हें मैं पहले ही मार चुका हूं। यह जो कृष्ण इतने सहजता से कह सके कि जिन्हें तू मारेगा उन्हें मैं पहले ही मार चुका हूं। वे मर ही चुके हैं, सिर्फ तेरा काम उन तक खबर पहुंचाने का है कि तुम मर गए हो और कोई बात नहीं है ज्यादा, यह काम मैं कर ही चुका हूं, यह हो ही चुका है; यह जो व्यक्ति बोल रहा है, अब व्यक्ति नहीं है, अब "कॉज्म?िक' खबर है। यह ब्रह्मांड के गहरे से आई हुई सूचना है कि यह जो सामने तुझे जिंदा दिखाई पड़ते हैं, मैं कहता हूं कि ये मर ही चुके हैं, घड़ी-दो-घड़ी की देर है, उसमें तू निमित्त भर है। तो तू यह मत सोच कि तू मार रहा है। तू मार रहा है, तब तू भयभीत हो जाएगा। कर्ता आया कि भय आया, कर्ता आया कि चुनाव आया, कर्ता आया कि चिंता आई, कर्ता आया कि संताप आया। तो तू यह सोच ही मत, तू यह जान ही मत; तू भूल में पड़ा है, तू यह नहीं कर रहा है। तू "कॉज्म?िक' के हाथों में, ब्रह्म के हाथों में एक इशारे से ज्यादा नहीं है, एक "गेस्चर' से ज्यादा नहीं है। करने दे उसे वह जो कर रहा है, तू अपने को छोड़। इसलिए वे कहते हैं, "सर्वधर्मान् परित्यज्य',...तू सब छोड़-छोड़कर आ। तू अपने को छोड़कर आ, तू अकर्म में आ जा।

अकर्म प्रक्रिया है स्मरण की।

ओशो रजनीश



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