श्री कृष्ण स्मृति भाग 96

 "भगवान श्री, अभी आपने कर्म, अकर्म और विकर्म पर बड़ी गहरी और बड़ी असाधारण चर्चा की। कश्मीर-प्रवास के समय भी जिस समय महेश योगी के विदेशी शिष्यों के सामने आत्म-साक्षात्कार की बात आई थी, उस समय भी आपने उन्हें अकर्म का ही बोध कराया था। इसमें कहीं कोई "कन्फ्यूजन' नहीं लगता है। लेकिन कृष्ण ने जो कुछ गीता में कहा, उसमें थोड़ा-सा "कनफ्यूजन' जरूर दिखाई पड़ता है। गीता के चौथे और पांचवें अध्याय में अकर्म-दशा पर कृष्ण ने भी जोर दिया है, किंतु गीता की अकर्म-दशा दोहरी भासित होने के कारण "कन्फ्यूजन' पैदा करती है। दोहरी इस प्रकार कि पहले कृष्ण कहते हैं कि सब कर्म करके वे कतई किए न हों, ऐसा होना योग बताया है; और कर्म कतई न करते हुए सब कर्म किए हों, ऐसा होना संन्यास है। यह दोहरी बात तत्वतः क्या है, इस पर कुछ प्रकाश डालें।

भगवान श्री, साथ में एक और प्रश्न ले लें।

शांकरभाष्य में, ज्ञानी को कर्म की जरूरत ही नहीं--ऐसा शंकराचार्य प्रस्तुत करते हैं। और कर्मी को ही कर्म करना उनको मंजूर है। और अभी आपने बताया कि हमें कुछ करना नहीं है, तो अर्जुन केवल यंत्र ही नहीं रह जाएगा? उसकी "इंडिवीजुऍलिटी' का क्या होगा?'


कृष्ण कहते हैं, सब कर्म किए हों और फिर भी ऐसा होना कि कर्म किए ही नहीं हैं, योग है। सब कर्म किए हों, फिर भी ऐसा होना कि किए ही नहीं हैं, योग है। अर्थात अकर्ता में प्रतिष्ठित होना योग है। दूसरी बात वे जो कहते हैं, वह इसी बात का दूसरा पहलू है। कुछ भी न करते हुए जानना कि सब कुछ किया है, संन्यास है।

संन्यास और योग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। निश्चित ही पहलू उलटे होते हैं। लेकिन एक ही सिक्के के दो पहलू जुड़े होते हैं और तय करना बहुत मुश्किल है कि पहला पहलू कहां खत्म होता है और दूसरा कहां शुरू होता है। उलटे होते हैं, दोनों की एक-दूसरे की तरफ पीठ होती है, लेकिन अगर हम सिक्के को चीरें-फाड़ें और तय करने जाएं कि सामने वाला पहलू कहां खत्म होता है और पीछे वाला पहलू कहां शुरू होता है, तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे। वे दोनों कहीं खत्म नहीं होते, दोनों बिलकुल ही एकसाथ जुड़े होते हैं। जिसे हम पृष्ठभूमि कह रहे हैं, जिसे हम पिछला पहलू कह रहे हैं, वह अगले पहलू की ही पीठ होती है।

तो अगर हम ज्ञानी को उसके चेहरे की तरफ से पकड़ें तो वह योगी मालूम पड़ेगा और उसकी पीठ की तरफ से पकड़ें तो वह संन्यासी मालूम पड़ेगा। और कृष्ण की दोनों परिभाषाओं में कोई "कन्फ्यूजन' नहीं है। वे ज्ञानी की दोनों तरफ से परिभाषा कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि वह करते हुए न करता है, न करते हुए करता है। और ध्यान रहे, ज्ञानी में ये दोनों बातें एकसाथ ही हो सकती हैं, एक अलग नहीं हो सकती। क्योंकि जो आदमी करते हुए न करता है, वही न करते हुए करता हो सकता है। ये दोनों बातें एक ही चीज के पहलू हैं, और ध्यान रहे, कोई भी सिक्का एक पहलू का नहीं होता, अब तक बनाया नहीं जा सका। दूसरा पहलू होगा ही। कहां से हम पकड़ते हैं, यह हम पर निर्भर करेगा। कृष्ण दोनों तरफ से पकड़ते हैं। और वह अर्जुन को सब तरफ से समझाने की कोशिश कर रहे हैं। वह उसको यह कह रहे हैं कि अगर तू योग में उत्सुक हो गया है तो योगी का यह मतलब है कि करते हुए न करने को उपलब्ध हो जा। अगर तू कहता है कि मुझे योग वगैरह की गहन चर्चा में मत उलझाइये, मैं तो यह देखकर दुख और यह भय और यह मोह पीड़ित हूं, मैं इनको नहीं मारता, मैं संन्यास ले लूंगा, तो वे उससे कहते हैं कि तू संन्यासी ही हो जा, लेकिन संन्यासी का मतलब ही यह है वह कहते हैं कि जो कुछ न करते हुए भी सब करता है।

वह अर्जुन को सब तरफ से घेरा डाल रहे हैं, और कुछ भी नहीं। इसलिए कोई जगह उनके वक्तव्य "कंट्राडिक्ट्री' मालूम पड़ते हैं। आपके साथ मेरी वही हालत हो जाती है। आपको मैं सब तरफ से घेरा डालता हूं, आप एक तरफ से कहते हैं, यह नहीं, तो मैं कहता हूं जाने दो, चलो दूसरी तरफ से शुरू करें। लेकिन आप कहीं से भी राजी हो जाएं। जहां आप राजी नहीं हुए थे, आखिर में आप पाएंगे कि दूसरी तरफ से राजी होकर आप उस छोर पर भी पहुंच गए हैं जहां आप राजी नहीं हुए थे। अर्जुन कहीं से भी राजी हो जाए, वह योगी होने को राजी हो जाए तो कृष्ण कहते हैं, चलो चलेगा। क्योंकि वे जानते हैं कि एक सिक्के में दो पहलू होते हैं, वह दूसरा पहलू बच नहीं सकता। तुम कहते हो हम सीधा सिक्का लेंगे, लो। उसका उलटा हिस्सा कहां जाएगा, वह तुम्हारे हाथ में पहुंच जाएगा।

एक ताओइस्ट कहानी है, वह मैं आपसे कहूं, उससे खयाल में आ जाएगा--

लाओत्से के फकीरों ने बड़ी अदभुत कहानियां कही हैं। ऐसी कहानियां दुनिया में किसी ने भी नहीं कहीं। एक फकीर है। जंगल में रहता है वह, उसने दस-बीस बंदर पाल रखे हैं। एक दिन सुबह कोई आ गया है जिज्ञासु और उससे ऐसा सवाल पूछा है जैसा सवाल आपने पूछा। उसने कहा है कि कभी आप ऐसा कहते हो, कभी आप ऐसा कहते हो, हम बड़े "कन्फ्यूजन' में पड़ जाते हैं। सांझ आप कुछ कहते हो, सुबह आप कुछ कहते हो, हम बड़े उलझन में पड़ जाते हैं। तो उस फकीर ने कहा, तू बैठ और देख। उसने अपने बंदरों को बुलाया और उनसे कहा कि सुना बंदरो, आज से तुम्हारे भोजन में परिवर्तन किए देता हूं। बंदरों को रोज सुबह चार रोटियां मिलती थीं। शाम तीन रोटियां मिलती थीं। उसने कहा कि उलट-फेर किए देता हूं। आज से तुम्हें सुबह तीन रोटियां मिलेंगी और सांझ को चार रोटियां मिलेंगी। बंदर एकदम नाराज हो गए और उन्होंने कहा कि हम बगावत कर देंगे, वह बर्दाश्त के बाहर है, यह परिवर्तन हम नहीं सह सकते। हम तो अपने नियम पर कायम रहेंगे। चार रोटी सुबह चाहिए। उसने कहा, यह नहीं होगा। तीन रोटी मिलेंगी सुबह, चार रोटी शाम मिलेंगी। बंदर हमला करने को उतारू हो गए। उसने कहा, अच्छा भाई ठहरो, तुम चार सुबह ले लो। बंदर बड़े प्रसन्न हुए। उसने उस आदमी की तरफ मुंह फेरा और उसने कहा कि सुनते हो, रोटियां सात ही मिलनी हैं, मगर बंदर तीन सुबह मिलेंगी इससे बहुत नाराज हैं। अभी भी सात ही मिलनी हैं, वे चार सुबह लें कि चार सांझ लें कि तीन सुबह लें कि तीन सांझ लें; लेकिन अब वे प्रसन्न हैं।

अर्जुन को कृष्ण ऐसे ही घेर रहे हैं। वे कभी उसको कहते हैं कि अच्छा तू तीन ले ले। वह कहता है कि यह नहीं हो सकता। तो वे कहते हैं, चार ले ले। रोटियां सात ही हैं। उसको कैसे अर्जुन लेने को राजी होगा, यह अर्जुन पर छोड़ते हैं। इसलिए इतनी लंबी गीता चलती है। वह बार-बार बदलते हैं कि अच्छा यह कर ले। अच्छा तू भक्त हो जा, अच्छा तू योगी हो जा, अच्छा तू कर्मयोग साध ले, अच्छा तू भक्तियोग साध ले, अच्छा नहीं तो ज्ञानयोग साध ले, तू क्या कहता है वही साध ले। मगर वे रोटियां सात हैं। अर्जुन को गीता के आखिर-आखिर तक समझ में आता है कि रोटियां सात हैं, और वह आदमी सात रोटियों से ज्यादा देगा नहीं, फिर कहीं से भी लिया जाए इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता।

दूसरे प्रश्न का उत्तर।

शंकर की परिभाषा पक्षपाती की परिभाषा है। शंकर की परिभाषा चुनाव की परिभाषा है। शंकर कर्म के सख्त विरोध में हैं। वे कहते हैं, कर्म ही बंधन है। वे कहते हैं, कर्म ही अज्ञान है। कर्म को छोड़े बिना उपाय नहीं। यहां वे कृष्ण के अकर्म को कर्म का छोड़ना बना लेते हैं कि कर्म छोड़ो। और कर्म के छोड़ने का मतलब भी वे यही लेते हैं कि जो-जो कर्मी का संसार है, जो कर्म का जगत है, उससे भाग जाओ। कर्म के संबंधों से हट जाओ।

ज्ञानी के लिए कोई कर्म नहीं है, यह बात तो सच है। लेकिन शंकर इसे जो व्याख्या देते हैं, वह ठीक नहीं है, अधूरी है। ज्ञानी के लिए कोई कर्म नहीं है, यह बिलकुल ही सच है, क्योंकि ज्ञानी के लिए कोई कर्ता नहीं है। लेकिन "एम्फेसिस' कर्ता के न होने पर होनी चाहिए--अर्जुन से जो कृष्ण कह रहे हैं। शंकर "एम्फेसिस' को बदलते हैं। वह कर्म पर "एम्फेसिस' डालते हैं कि कर्म नहीं होना चाहिए। असल में कर्म के दो हिस्से हैं--कर्ता और कर्म। कृष्ण का पूरा जोर इस पर है कि कर्ता न रह जाए। कर्म तो रहेगा ही। परमात्मा भी कर्म के बिना नहीं है, तो या तो कर्मी है, संसारी है, अज्ञानी है। परमात्मा भी कर्म के बिना नहीं है, क्योंकि यह संसार उसका कर्म है, अन्यथा यह संसार कैसे चलता है। यह कैसे चलता है, क्यों चलता है? इस चलने के पीछे चलने वाली ऊर्जा का हाथ है। तो कर्म के बाहर तो परमात्मा भी नहीं है, ज्ञानी कैसे होगा! जोर है कृष्ण का कर्ता न होने पर। लेकिन संसार को छोड़कर भागने वाला संन्यासी, "एस्केपिस्ट', पलायनवादी, वह कहेगा--कर्म छोड़ो। और तब शंकर को संसार को माया कहने को मजबूर हो जाना पड़ता है। उनको कहता पड़ता है, यह परमात्मा का कर्म नहीं है, सिर्फ हमारा भ्रम है। नहीं तो मुश्किल पड़ जाएगी। अगर यह परमात्मा का कर्म है--यह फूलों का खिलना और यह पहाड़ों का बनना और मिटना और यह चांदत्तारों का चलना और ऊगना और डूबना--अगर यह परमात्मा का कर्म है, तब तो परमात्मा भी संन्यस्त नहीं है। तो फिर आदमी से अपेक्षा क्या करनी है! तो इसलिए शंकर को और दूसरी झंझट में पड़ना पड़ता है।

असल में तर्क की अपनी झंझटें हैं। एक तर्क आपने पकड़ा, तो उसकी "कोरललीज' हैं। फिर आपको उसकी आखिरी सीमा तक जाना पड़ेगा। तर्क बहुत "टास्क मास्टर' है। एक तर्क आपने पकड़ा तो वह आपको फिर "लाजिकल कनक्लूज़न' तक, वह जो तर्क का अंत होगा, वहां तक ले जाएगा। एक बार शंकर ने यह कहा कि कर्म बंधन है, कर्म ही अज्ञान है, और ज्ञानी का कोई कर्म नहीं है, तब फिर मुश्किल हो गई। यह कर्म का विराट जाल! फिर इसको सपना कहे बिना कोई रास्ता नहीं है। यह झूठ है। यह है ही नहीं, यह सिर्फ भास रहा है, यह "एपीयरेंस' है, यह सिर्फ माया है, यह सिर्फ जादूगरी है, यह ऐसे है जैसे एक जादूगर एक बीज बोता है और आम का वृक्ष हो जाता है और आम लग जाते हैं--न कहीं कोई बीज है, न कहीं कोई आम है, न कहीं कोई वृक्ष है, एक "हिप्नोटिक ट्रिक' है--वह सिर्फ भास है। लेकिन, बड़े मजे की बात है कि "हिप्नोटिक ट्रिक' देखने वालों के लिए झूठ हो, करने वाले के लिए कर्म है। "हिप्नोटिस्ट' के लिए तो कर्म है ही। "हिप्नोटिज्म' भी तो करना ही पड़ता है।

शंकर इसलिए जाल में पड़ते जाते हैं। और बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है कि अब वह क्या करें? अब यह माया को कैसे समझाएं? अगर माया सिर्फ हमारा भ्रम है, हमने पैदा किया है, तो भी कम-से-कम परमात्मा "अलाविंग' तो होगा ही कि वह हमको "अलाऊ' करता है। यानी इतना तो कर्म मानना ही पड़ेगा उसका कि वह हमको आज्ञा देता है कि तुम भ्रम देखो। क्योंकि उसकी इतनी आज्ञा भी न हो, तो हम कैसे देख पाएंगे! हम भ्रम देख रहे हैं। हो सकता है कि भ्रम झूठ हो, लेकिन हमारा देखना तो कर्म होगा ही।

इसलिए शंकर छूट नहीं पाते, चक्कर बढ़ता जाता है। और वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। लेकिन बड़े तार्किक हैं, और गहरी चेष्टा करते हैं यह समझाने की कि कर्म असत्य है, है नहीं। ज्ञानी के लिए कोई कर्म नहीं है। बाकी उनका जोर कर्ता के मिटाने पर उतना नहीं पड़ता जितना कर्म के मिटाने पर पड़ता है। लेकिन क्या मैं यह कह रहा हूं कि शंकर सत्य को नहीं पहुंच सके? नहीं, यह मैं नहीं कह रहा हूं। शंकर सत्य को पहुंच गए। क्योंकि जिस दिन कर्म को आप बिलकुल मिटा देंगे, कर्ता बचेगा कैसे? कैसे बचेगा? क्योंकि कर्ता बच ही तब तक सकता है जब तक कर्म का भाव है। तो शंकर का पूरा "लाजिक' "एब्सर्ड' है, गलत है, लेकिन शंकर की अनुभूति गलत नहीं है। इस बहुत गलत-सलत रास्ते से वे पहुंच तो गए। ऐसे भटके, इधर-उधर बहुत चक्कर लगाए, मंदिर के आसपास बहुत दौड़े, तब मंदिर में प्रवेश किया, लेकिन कर गए। कर गए दूसरे कारण से। क्योंकि कर्म को अगर बिलकुल निषिद्ध किया जा सके, कल्पना में भी, ज्ञान में भी अगर यह माना जा सके कि कर्म है ही नहीं, तो कर्ता बचेगा कहां? क्योंकि कर्ता बच सकता है कर्म करने से; इस भाव से कि कर्म है, बच सकता है। तो बिलकुल गलत छोर से यात्रा शुरू की। कृष्ण के छोर से यात्रा शुरू नहीं की।

कृष्ण कह रहे हैं, कर्ता को जाने दो, क्योंकि जब कर्ता चला जाएगा तो कर्म चला जाएगा। ये दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। लेकिन मैं शंकर के मुकाबले कृष्ण को चुनने को राजी हूं। इसलिए राजी हूं कि शंकर की पूरी व्याख्या "एस्केपिस्ट' बन जाती है। शंकर भगाने वाले बन जाते हैं। और शंकर के भागने वाले को भी उन लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है जो भागने वाले नहीं हैं। अगर यह पूरी पृथ्वी शंकर से राजी हो जाए, तो एक क्षण चल नहीं सकता। एक क्षण चलने का उपाय नहीं रह जाएगा। और इसलिए पूरी पृथ्वी राजी नहीं हो सकती। और शंकर भी कितनी ही चेष्टा करें, कर्म को कितना ही माया कहें, वह माया होकर भी शेष रह जाता है। शंकर भी भीख तो मांगने निकलते ही हैं, भिक्षा तो लेते ही हैं, समझाने तो जाते ही हैं, समझाने की चेष्टा तो करते ही हैं। शंकर के विरोधियों ने शंकर का खूब मजाक लिया है। शंकर के विरोधी कहते हैं, तुम किसको समझाते हो? अगर सब माया है, तो काहे भ्रम में पड़ते हो? तुम यह गांव-गांव किसलिए भटकते हो? यह चलना किसलिए? यह समझाना किसलिए? किसको समझा रहे हो, जो नहीं है उसको? कहां जा रहे हो, जो नहीं है वहां? कहां से आ रहे हो, जो नहीं था वहां से? यह भिक्षा का पात्र, यह भिक्षा मांगना, यह भूख, यह प्यास, यह किसी का पूरा करना, यह न करना--शंकर कहेंगे, सब माया है।

एक कहानी मुझे याद आती है। एक बौद्ध भिक्षु जो जगत को माया ही मानता, संसार को झूठा ही मानता, वह एक सम्राट के दरबार में गया। उसने बड़े तर्क दिए और सिद्ध कर दिया कि सब झूठ है। तर्क में एक सुविधा है। तर्क तो सिद्ध कभी नहीं कर पाता कि सत्य क्या है, लेकिन यह सिद्ध कर सकता है कि झूठ क्या है? तर्क यह तो कभी नहीं बता पाता है कि क्या है, तर्क यह जरूर बता पाता है कि क्या नहीं है। तलवार की तरह है--तलवार मार तो सकती है, जिला नहीं पाती। तोड़ तो सकती है, जोड़ नहीं पाती। मिटा तो सकती है, बना नहीं पाती। तो तर्क में एक धार है तलवार जैसी, "डिस्ट्रक्वि' है। तर्क ने कभी भी कुछ "कन्स्ट्रक्ट' नहीं किया, कर नहीं सकता।

सम्राट के दरबार में उसने सब सिद्ध कर दिया कि सब झूठ है। लेकिन सम्राट भी अपने ढंग का आदमी है। उसने कहा कि सब होगा झूठ, लेकिन एक चीज नहीं हो सकती है, वह मेरे पास है। उसे मैं बुलाए लेता हूं। उसके पास एक पागल हाथी है। उसने उस पागल हाथी को बुलवा लिया। महल पर, सड़क खाली कर दी गई और पागल हाथी छोड़ दिया गया और उस गरीब भिक्षु को छोड़ दिया गया, सम्राट छत पर खड़ा है। वह पागल हाथी दौड़ता है, वह भिक्षु भागता है और चिल्लाता है कि मुझे बचाओ! मैं मरा, मैं मर जाऊंगा, मुझे बचाओ, लेकिन वह हाथी को दौड़ाए चले जाते हैं, वह उसको बिलकुल पकड़वाते भी नहीं, पूरे गांव में दौड़वाते हैं। फिर आखिर हाथी उसे पकड़ लेता है सूंड़ में। वह चिल्लाता है, हाथ-पैर जोड़ता है, रोता है, गिड़गिड़ाता है कि मैं मर जाऊंगा, फिर उसे छुड़ाया जाता है। फिर सम्राट उसे महल के भीतर बुलाता है, फिर उससे पूछता है कि यह हाथी? वह भिक्षु कहता है, सब असत्य है। तुम्हारा रोना? वह कहता है, आप भ्रम में आ गए, सब असत्य, वह मेरा होना असत्य, वह मेरा रोना-चिल्लाना असत्य, वह मेरे मरने का भय असत्य, वह मेरी प्रार्थना असत्य, वह तुम जिनसे प्रार्थना की गई असत्य, वह तुमने जो छुड़वाया असत्य, कुछ सत्य नहीं है।

अब इसके साथ बड़ी मुश्किल है। इसके साथ बड़ी मुश्किल है। अब वह पागल हाथी भी हार गया, अब कोई मतलब न रहा। क्योंकि यह आदमी यह आदमी, मगर है "कंसिस्टेंट'। वह यह कहता है कि जब सभी असत्य है, तो मेरा रोना कैसे सत्य हो जाएगा? वह कह रहा है, सब असत्य है, बचाने की पुकार असत्य है। हां, वह यह कह रहा है, जब मैं कह रहा हूं कि संसार असत्य है, तो तुमने भ्रम समझा; मेरी बचाने की आवाज भ्रम भी, झूठी थी, माया थी। जो आदमी सारे जगत को माया कहने को राजी है। उसे समझाना बड़ा कठिन है। क्योंकि वह सबको ही कहने को राजी है। शंकर के विरोधी मजाक उड़ाते हैं, लेकिन शंकर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। शंकर कहते हैं, तुम्हारा यह देखना असत्य है कि मैं समझाने जाता हूं, कि मैं किसी को समझाता हूं, कि कोई समझाता है, कि कोई समझाने वाला है। न कोई समझाने वाला है, न कोई समझने वाला है, सब माया है। जिसने यह कहा सब माया है, उसको अब तर्क का कोई उपाय न रहा।

लेकिन, तर्क में यह कितना ही सही हो जाए, हम जीवन को चाहे माया ही नाम दे दें, लेकिन माया भी है। उसके होने को शंकर इनकार नहीं कर सकते। वह है। रात हम सपना देखते हैं, वह झूठ है, लेकिन वह है। उसके "एक्जिस्टेंस' को, उसके अस्तित्व को इनकार नहीं कर सकते। सपना कितना ही झूठा हो, है। सांप मुझे रस्सी में दिखाई पड़ा हो, लेकिन दिखाई पड़ा है। यह सवाल नहीं है कि वह है या नहीं, लेकिन मेरा दिखाई पड़ना तो कम-से-कम है। न होगा सांप, रस्सी तो है। न होगी रस्सी, मुझे दिखाई पड़ा, यह तो है। न होगा यह दिखाई पड़ना, जिसे दिखाई पड़ा, वह तो है।

अस्तित्व को हम अंततः निषिद्ध नहीं कर सकते। वह बच ही जाता है। आखिर, आखिर, आखिर। हां, डिकार्ट ठीक कहता है कि हम सब निषेध कर दें, लेकिन आखिर उसको कैसे निषेध करेंगे जो निषेध कर रहा है? "वी कैन नाट निगेट द निगेटर'। सब असत्य कर दें, लेकिन शंकर? शंकर तो हैं। इसलिए शंकर की जो व्याख्या है, वह अधूरी है, और एक पहलू की है। वह सिक्के के एक पहलू पर जोर दे रहे हैं, दूसरे पहलू का उनको पता नहीं है। और दूसरे को इनकार कर रहे हैं, जबकि सिक्के के दोनों पहलू हैं।

तो शंकर कृष्ण से कम "कन्फ्यूजिंग' हैं, शंकर कृष्ण से कम भ्रम में डालते हैं। इसलिए शंकर के साथ जो खड़े हैं, वे निर्भ्रांत खड़े हो गए। इसलिए शंकर हिंदुस्तान में संन्यासियों का बड़ा आत्मविश्वासी वर्ग पैदा कर सके, वह कृष्ण पैदा नहीं कर सके। सच तो यह है कि शंकर का ही एक निर्भ्रांत संन्यासियों का वर्ग खड़ा हुआ। क्योंकि शंकर एक पहलू की बात करते हैं, बिना इसकी फिक्र किए कि दूसरा पहलू अस्तित्व में है। लेकिन दूसरे पहलू के अस्तित्व की भी अगर बात की जाए, तो उसको समझने के लिए बड़ी गहरी समझ चाहिए। इसलिए शंकर संन्यासियों का एक बड़ा वर्ग भी पैदा कर सके, लेकिन नासमझ संन्यासियों को भी बड़ी संख्या में इकट्ठा कर सके। हिंदुस्तान का संन्यास भी शंकर के साथ पैदा हुआ और हिंदुस्तान का संन्यास शंकर के साथ ही मंदबुद्धि भी हुआ है। ये दोनों बातें एकसाथ हुई हैं। क्योंकि कृष्ण के साथ खड़े होने के लिए बड़ी मेधा चाहिए, जो "कन्फ्यूज्ड' होती ही नहीं, जो "कंट्राडिक्शन' से "कन्फ्यूज्ड' होती ही नहीं, जो विरोधों से भ्रम में नहीं पड़ती। हम सब विरोध से भ्रम में पड़ जाएंगे। इसलिए शंकर की कृष्ण की गीता की जो व्याख्या है वह सर्वाधिक लोकप्रिय हुई है। उसका कारण यह है कि शंकर ने पहली दफे गीता को निर्भ्रांत कर दिया, उसमें से सब भ्रांतियां अलग कर दीं, साफ-सुथरा कर दिया, सब विरोध छांट डाले, एक सीधी एकरस व्याख्या कर दी। लेकिन मेरा मानना है कि कृष्ण के साथ जितना अन्याय शंकर ने किया उतना किसी और ने नहीं किया। हालांकि यह भी हो सकता है कि अगर शंकर ने टीका न की होती, तो गीता खो गई होती। यह भी हो सकता है। क्योंकि शंकर की टीका ही के कारण गीता सारे जगत में बची है। मगर यह सब है, ऐसा ही है।

ओशो रजनीश



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