श्री कृष्ण स्मृति भाग 97

 "भगवान श्री, शंकर की माया का अर्थ झूठ न होकर परिवर्तनशीलता नहीं हो सकता?'


अर्थ तो कुछ भी किया जा सकता है। लेकिन शंकर परिवर्तनशीलता को ही झूठ कहते हैं। शंकर कहते ही यह हैं कि वही है असत्य, जो सदा एक-सा नहीं है। वही है मिथ्या, जो कल था कुछ और, आज है कुछ और, कल होगा कुछ और। शंकर की मिथ्या और असत्य की परिभाषा ही परिवर्तन है। शंकर कहते हैं, जो शाश्वत है, सदा है, वही है; वही है, वैसा ही है। जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं हुआ, जिसमें परिवर्तन हो ही नहीं सकता, वही है सत्य। सत्य की शंकर की परिभाषा शाश्वतता है। "इटरनिटी' है। और संसार की परिभाषा परिवर्तन है, जो बदल रहा है, जो बदलता जा रहा है, जो एक क्षण भी वही नहीं है जो एक क्षण पहले था।

अब इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब यह होता है कि जो एक क्षण पहले कुछ और था और एक क्षण बाद कुछ और हो गया--इसका मतलब क्या हुआ--इसका मतलब यह हुआ कि जो एक क्षण पहले था वह भी वह नहीं था, और एक क्षण बाद जो हो गया वह भी वह नहीं है, क्योंकि एक क्षण बाद वह फिर कुछ और हो जाएगा। जो नहीं है, उसी का नाम असत्य है। जो एक क्षण पहले भी वही था, एक क्षण बाद भी वही है, एक क्षण बाद भी वही होगा, जो है ही वही, वही है सत्य। शंकर सत्य और असत्य की जो परिभाषा करते हैं, उसमें परिवर्तन ही असत्य का पर्याय बन जाता है। और अपरिवर्तनीय ही सत्य का पर्याय बन जाता है। लेकिन, मैं जो कह रहा हूं, या कृष्ण जो कहेंगे, वह यह कहेंगे कि परिवर्तन उतना ही सत्य है, जितना अपरिवर्तन सत्य है। कृष्ण यह कह रहे हैं कि परिवर्तन उतना ही सत्य है, जितना अपरिवर्तन सत्य है। क्योंकि वह जो अपरिवर्तित है, परिवर्तन के बिना नहीं हो सकता। और वह जो परिवर्तित हो रहा है, अपरिवर्तित कीली के बिना नहीं घूम सकता। असल में अपरिवर्तित के होने के लिए परिवर्तन जरूरी है। और परिवर्तन के होने के लिए अपरिवर्तित होना जरूरी है।

वह जो "अनमूविंग' है, वह है ही इसीलिए कि उसके चारों तरफ "मूविंग' है। कृष्ण के साथ--कृष्ण सारे द्वंद्व को आत्मासात करते हैं सब दिशाओं से। वे यह कहते हैं कि गति का आधार अगति है। अगति का होना गति पर है। अगर हम कृष्ण को समझें, तो उसका मतलब यह है कि सत्य के होने के लिए भी असत्य अनिवार्यता है। नहीं तो सत्य भी नहीं हो सकेगा। सत्य के होने के लिए असत्य वैसी ही अनिवार्यता है, नहीं तो सत्य भी नहीं हो सकेगा। सत्य के होने के लिए असत्य वैसी ही अनिवार्यता है, जैसे प्रकाश के होने के लिए अंधकार अनिवार्यता है। जो विपरीत है वह अनिवार्य है। असल में वे एक ही चीज के दो पहलू हैं, हमारी दिक्कत है कि हम उसको विपरीत मानकर चल पड़ते हैं। वह एक ही चीज के दो पहलू हैं। इसलिए हम पूछते हैं, असत्य आया कहां से? यह क्यों नहीं पूछते हैं कि सत्य आया कहां से? जब सत्य बिना कहीं से आए आ जाता है, तो असत्य को कौन-सी कठिनाई है? यह बड़े मजे की बात है कि ब्रह्मज्ञान पर चर्चा करने वाले लोग निरंतर पूछते हैं, असत्य आया कहां से? और उनमें से एक भी इतनी बुद्धि नहीं लड़ाता कि सत्य आया कहां से? और अगर सत्य आ जाता है बिना कहीं से, तो असत्य को क्या बाधा है? बल्कि सच तो यह है कि असत्य को ज्यादा सुविधा है बिना कहीं से आने के, बजाय सत्य के। सत्य को कहीं से आना चाहिए। असत्य को आने की क्या जरूरत है। जो असत्य ही है, वह बिना कहीं से भी आ सकता है! असत्य का मतलब ही है कि जो नहीं है। उसके आने के लिए क्या मूलस्रोत की जरूरत है?

नहीं, सत्य और असत्य आए कहां से, ऐसा सोचना गलत है। सत्य और असत्य युगपत हैं, "साइमल्टेनियस' हैं। वे एक ही अस्तित्व के दो पहलू हैं। उनके आने-जाने का सवाल नहीं है। जिस दिन तुम्हारा जन्म आया उसी दिन मौत आ गई, आएगी नहीं। वह जन्म का ही दूसरा पहलू है। लेकिन अभी तुमने एक पहलू देखा, सत्तर साल लग जाएंगे दूसरे को देखने में, यह दूसरी बात है। यह तुम्हारी असमर्थता है कि तुम एक साथ नहीं देख सके। तुमको सिक्का उलटाने में सत्तर साल लग गए। बाकी जिस दिन जन्म आया, उसी दिन मौत आ गई। जिस क्षण सत्य आया, उसी क्षण असत्य आ गया। आ गया की भाषा ही गलत है--सत्य है, असत्य है। "एक्जिस्टेंस' है, "नानएक्जिस्टेंस' है। अस्तित्व है, अनस्तित्व है।

शंकर ने एक पहलू पर जोर दिया है, इसके साथ एक दूसरा पहलू भी ध्यान में ले लेना जरूरी है।

शंकर ने जोर दिया कि यह जो दिखाई पड़ रहा है यह माया है। यह एक पहलू था। बुद्ध ने इसके ठीक उलटे पहलू पर जोर दिया जो नागार्जुन में जाकर पूरा हो गया। उसने कहा, जिसको दिखाई पड़ रहा है, वह माया है। तो शंकर की भाषा में संसार झूठ हो गया, नागार्जुन की भाषा में आत्मा झूठ हो गई। नागार्जुन यह कहता है कि जो दिखाई पड़ रहा है, वह जिसको दिखाई पड़ रहा है, इनमें दोनों में मौलिक आधार वह नहीं है जो दिखाई पड़ रहा है, मौलिक आधार वह है जिसको दिखाई पड़ रहा है, वह झूठ है। और सब झूठ उससे पैदा हो रहे हैं। क्योंकि मैं आंख बंद कर लेता हूं, संसार दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन मैं आंख बंद करके सपने पैदा कर लेता हूं। आंख बंद कर लेता हूं, संसार नहीं दिखाई पड़ता है, लेकिन मैं आंख बंद करके सपने देखने लगता हूं। असली बुनियादी झूठ मैं हूं। अगर संसार भी न हो, तो मैं सपने पैदा करूंगा। मजे की बात है कि मैं सपने के भीतर भी सपने पैदा कर लेता हूं। आपने ऐसे भी सपने देखे होंगे जिसमें आप सपना देख रहे हैं। बहुत "मिरेकुलस' है यह बात कि एक आदमी सपना देख रहा है कि वह सपना देख रहा है। जैसे कि जादूगर के डब्बे के भीतर डब्बे होते हैं, ऐसा सपने के भीतर सपने, सपने के भीतर सपने होते हैं। आप ऐसा देख सकते हैं कि मैं एक फिल्म देख रहा हूं, फिल्म में अपनी ही कहानी देख रहा हूं, उस कहानी में मैं सो गया हूं और सपना देख रहा हूं। डब्बे के भीतर डब्बे डाले जा सकते हैं। इसमें कोई अड़चन नहीं है। तो नागार्जुन कहता है कि संसार को किसलिए झूठ कहने की झंझट में पड़े हो, असली झूठ भीतर बैठा हुआ है। नागार्जुन कहता है, वह जो भीतर है, वही झूठ है।

असल बात यह है कि जगत में सत्य और असत्य एकसाथ हैं। अगर किसी ने बहुत जोर दिया कि सत्य ही है, तो उसको असत्य को कहीं-न-कहीं दिखाना पड़ेगा कि वह कहां है। अगर किसी ने जोर दिया कि असत्य ही है, तो उसको दिखाना पड़ेगा सत्य कहां है। कृष्ण की दुविधा बड़ी गहरी है। और जो लोग दुविधा में नहीं होते, अक्सर उथले होते हैं। दुविधा में होना बड़ी गहरी बात है। सौभाग्य से दुविधा मिलती है। दुविधा का मतलब यह है कि जिंदगी को हमने उसकी पूर्णता में देखना शुरू किया है। न हम यह कहते हैं कि सिर्फ असत्य है, हम देखते हैं और पाते हैं कि सत्य और असत्य किसी एक ही चीज के तालमेल हैं। किसी एक ही चीज के स्वर हैं। किसी एक ही बांसुरी से पैदा हुआ अस्तित्व भी है, अनस्तित्व भी है। और जब कोई आदमी इसको ऐसा पूर्णता में देखता है, तब उसकी कठिनाई हम समझ सकते हैं कि वह जो भी वक्तव्य देगा, वह "कन्फ्यूजिंग' हो जाएंगे। इसलिए कृष्ण के सभी वक्तव्य "कन्फ्यूजिंग' हैं। और बहुत गहरे दर्शन से ही "कन्फ्यूजिंग' वक्तव्य दिए जा सकते हैं।

ओशो रजनीश








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