श्री कृष्ण स्मृति भाग 98

 "शंकर का माया को अनिवर्चनीय कहना क्या उनका "कांप्रोमाइज' करना नहीं है?'


शंकर को तो "कांप्रोमाइज' करनी ही पड़ेगी। जो भी अधूरे सत्य पर जोर देगा, उसको समझौता करना ही पड़ेगा किसी-न-किसी रूप में स्वीकार करना पड़ेगा--कहो कि माया है, कहो कि निवृत्ति सत्य है, कहो कि व्यवहार सत्य है--कुछ नाम दो, लेकिन कहीं-न-कहीं स्वीकार, उसको स्वीकृति देनी पड़ेगी, क्योंकि वह है। शंकर भी ऐसा नहीं कह सकते कि हम माया की बात नहीं करते, क्योंकि जो है ही नहीं उसकी क्या बात करनी। उनको भी बात तो करनी ही पड़ेगी। तो शंकर को "कांप्रोमाइज' करना पड़ेगा! सिर्फ कृष्ण जैसा आदमी "कांप्रोमाइजिंग' नहीं होता। उसको "कांप्रोमाइज' की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह दोनों को साथ-साथ स्वीकार कर रहा है। वह कह रहा है, दोनों हैं। जो एक को इनकार करेगा उसको किसी-न-किसी गहरे तल पर समझौता बनाना पड़ेगा उस दूसरे से, जिसको उसने इनकार किया है। जो दोनों को स्वीकार करता है, उसको अब समझौते का कोई कारण न रहा। समझौते की कोई जरूरत न रही। ऐसा कहें कि समझौता पहले से ही है।

ओशो रजनीश



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