श्री कृष्ण स्मृति भाग 99

 "भगवान श्री, दुविधा को आपने शुभ कहा। पहले आपने अनिर्णायक स्थिति के विपरीत व किसी-न-किसी पक्ष में होने की अनिवार्यता पर जोर दिया है। कृपया स्पष्ट करें।'


मैंने कहा कि दुविधा सौभाग्य है। इसका मतलब यह नहीं है कि दुविधा में रहना सौभाग्य है। इसका मतलब है कि जिनको दुविधा पैदा होती है, फिर वह दुविधा के पार जाने की चेष्टा में लग जाते हैं। जिनको होती नहीं पैदा, वे वहीं खड़े रह जाते हैं, वे कहीं जाते नहीं।

तो दुविधा संक्रमण है। दुविधा यात्रा का बिंदु है। दुविधा पैदा होगी तो दुविधा के पार होना पड़ेगा। यह पार होना दो तरह से हो सकता है। या तो किसी पक्ष में हो जाएं नीचे गिरकर, तो दुविधा मिट जाएगी। शंकर से राजी हो जाएं, नागार्जुन से राजी हो जाएं, दुविधा मिट जाएगी। और जो राजी होते हैं, इसीलिए राजी होते हैं कि दुविधा मिट जाती है। झंझट के वे बाहर हो जाते हैं। लेकिन दुविधा वे खोते हैं बुद्धि को खोकर। जिसके पास बुद्धि नहीं है, उसको दुविधा होती ही नहीं। बुद्धि खो दें, दुविधा मिट जाती है। लेकिन मैं मानता हूं यह कि दुविधा को मिटाना महंगा हुआ, दुर्भाग्य हुआ। दुविधा मिटनी चाहिए बुद्धि के और अतिक्रम से, और ऐसे बिंदु पर पहुंचकर मिटनी चाहिए कि जहां से दोनों एक मालूम पड़ने लगें और दुविधा न रह जाए।

दो में से एक का चुनना--एक रह जाएगा, आप दुविधा के नीचे गिर जाएंगे। यह अगर ठीक से कहें, तो यह "इर्रेशनल' हालत होगी। यह "एब्सर्ड' हालत होगी, बुद्धि से नीचे गिर गए आप। दुविधा तो मिट गई। पागल इसी तरह अपनी दुविधा मिटाते हैं। बुद्धि छोड़ देते हैं, फिर दुविधा मिट जाती है। "ट्रांसरेशनल' स्थिति भी है। "इर्रेशनल बिलो रीजन' है, "ट्रांसरेशनल अबव रीजन' है। बुद्धि के पार जाकर भी दुविधा मिटती है, लेकिन वहां दोनों एक दिखाई पड़ते हैं, इसलिए मिटती है। वहां विरोध खो जाता है--एक के बचने से नहीं, दो के मिट जाने से, एक ही रह जाने से। इसलिए मैं कहता हूं, दुविधा सौभाग्य है। वह अबुद्धि से बुद्धि में ले जाती है। और सौभाग्य इसलिए है कि उससे बुद्धि के पार बुद्धि-अतीत का द्वार खुलता है।

ओशो रजनीश



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