श्री कृष्ण स्मृति भाग 96

"भगवान श्री, अभी आपने कर्म, अकर्म और विकर्म पर बड़ी गहरी और बड़ी असाधारण चर्चा की। कश्मीर-प्रवास के समय भी जिस समय महेश योगी के विदेशी शिष्यों के सामने आत्म-साक्षात्कार की बात आई थी, उस समय भी आपने उन्हें अकर्म का ही बोध कराया था। इसमें कहीं कोई "कन्फ्यूजन' नहीं लगता है। लेकिन कृष्ण ने जो कुछ गीता में कहा, उसमें थोड़ा-सा "कनफ्यूजन' जरूर दिखाई पड़ता है। गीता के चौथे और पांचवें अध्याय में अकर्म-दशा पर कृष्ण ने भी जोर दिया है, किंतु गीता की अकर्म-दशा दोहरी भासित होने के कारण "कन्फ्यूजन' पैदा करती है। दोहरी इस प्रकार कि पहले कृष्ण कहते हैं कि सब कर्म करके वे कतई किए न हों, ऐसा होना योग बताया है; और कर्म कतई न करते हुए सब कर्म किए हों, ऐसा होना संन्यास है। यह दोहरी बात तत्वतः क्या है, इस पर कुछ प्रकाश डालें। भगवान श्री, साथ में एक और प्रश्न ले लें। शांकरभाष्य में, ज्ञानी को कर्म की जरूरत ही नहीं--ऐसा शंकराचार्य प्रस्तुत करते हैं। और कर्मी को ही कर्म करना उनको मंजूर है। और अभी आपने बताया कि हमें कुछ करना नहीं है, तो अर्जुन केवल यंत्र ही नहीं रह जाएगा? उसकी ...